केदारनाथ यात्रियों की मौत पर बहस क्यों नहीं?
केदारनाथ के कपाट खुलने के साथ ही श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ पड़ा है। वर्ष 2013 की आपदा के बाद पहली बार श्रद्धालु इतनी भारी संख्या में केदारनाथ पहुंच रहे हैं। इस बार भीड़ इतनी है कि दोपहर में दर्शन का समय डेढ़ घंटे बढाया गया है। लेकिन कभी आपदा, तो कभी पुनर्निर्माण कार्यो को लेकर चर्चा में रहे केदारनाथ धाम के कपाट खुलने के साथ ही सियासत भी तेज हो गई है। पुनर्निर्माण कार्यो को लेकर चल रही सियासत के बीच श्रद्धालु जान जोखिम में डालकर बाबा केदारनाथ के दर्शन करने पहुंच रहे हैं।
यात्रा के पहले 18 दिन के भीतर 18 तीर्थयात्री की मौत हो चुकी है। इस हिसाब से हर दिन एक यात्री की मौत हो रही है। मौत का यह आंकड़ा यात्रा मार्ग में सरकारी सुविधाओं पर सीधे सवाल ख़ड़े कर रहा है। लेकिन, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत पुनर्निर्माण में धीमी रफतार और यात्रा मार्ग में सुविधाओं की कमी की बात से इंकार करते हुए कहते हैं- चारधाम यात्रा के लिए सरकार ने पूरे प्रबंध किये हैं और केदारनाथ में श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए पूरी तैयारी है। उन्हें अपने मन से हर डर निकाल देना चाहिए।
केदारनाथ में चल रहे पुनर्निमाण कार्यों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी संतुष्ट नहीं हैं।29 अप्रैल को कपाटोत्सव में शामिल होने के लिए उनका केदारधाम आने का कार्यक्रम था। यात्रा से ठीक पहले प्रधानमंत्रा ने दिल्ली में अपने ऑफिस साउथ ब्लॉक में ड्रोन तकनीकी से केदारनाथ में चल रहे पुनर्निर्माण की रफ़्तार को देखा था। पुनर्निर्माण की धीमी रफ्तार से पीएम इस कदर नाराज हुए कि उन्होंने अपनी यात्रा ही टाल दी। केदारनाथ का पुननिर्माण मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट में शामिल है। मोदी पिछले साल छह महीने के भीतर दो बार केदारनाथ के दर्शन करने पहुंचे थे । तब बीजेपी नेताओं की भीड़ उमड़ पड़ी थी। नेताओं ने केदारनाथ पहुंचने के लिए हैलिकॉप्टर को टैक्सी बना दिया था। लेकिन इस बार कपाट खुलने के मौके पर सरकार का कोई भी प्रतिनिधि केदारनाथ नहीं पहुंचा। यहां तक कि पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज भी नहीं पहुंचे।
विपक्ष के लिए अब यह बड़ा मुद्दा है। पूर्व मुख्यमंत्रीऔर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत कहते हैं- मुख्यमंत्री समेत अन्य मंत्रियों को को न श्रद्धालुओं की परवाह है और न ही बाबा केदार के दर्शन की इच्छा. उन्हें तो सिर्फ़ पीएम को ख़ुश करने की चिंता है.।
दरअसल, 2013 के भीषण हादसे के बाद से हीं केदारनाथ बीजेपी और कांग्रेस के लिए सियासी प्रयोगशाला बना हुआ है। मोदी से पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी यहां पहुंचते रहे हैं। 2016 में जब केदार आपदा से उबरने की कोशिश में था और कांग्रेस का शासन उत्तराखंड में था तब राहुल गाँधी लगभग 19 किलोमीटर की पैदल दूरी तय कर केदारनाथ पहुंचे थे। कपाट खुलने के वक्त केदारनाथ पहुंचकर बेशक राहुल ने इसके सुरक्षित होने का सन्देश दुनिया को देने की कोशिश की थी लेकिन उसके सियासी मायने बीजेपी समझ रही थी। शायद यही वजह थी कि अगले साल जैसे ही उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार बनी पधानमंत्री मोदी ने केदार के दर पर पहुंचने में कोई देरी नहीं की।
उत्तराखंड में बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री चारधाम हैं। केदारनाथ धाम की यात्रा अन्य धामों की यात्रा से कुछ अलग है। इनमें से यमुनोत्री और केदारनाथ ऑक्सीजन की कमी सबसे बड़ी समस्या है। यमुनोत्री में हल्की ऑक्सीजन की कमी महसूस होती है, किंतु केदारनाथ धाम की विषम परिस्थितियां, ऊंचाई वाला मार्ग और समुद्र सतह से 11 हजार 7 सौ फीट की ऊंचाई यात्रियों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बनती है। गौरीकुंड से मंदिर तक का पैदल मार्ग उबड़-खाबड़ और कई जगह खड़ी चढाईवाला है। इस पथरीले रास्ते पर यात्रा के दौरान सांस फूलना, बेहोशी या चक्कर आना, सिरदर्द व घबराहट होना, दिल की धड़कन तेज होना, मितली, उल्टी आना और हाथ पांव व होंठों का नीला पड़ जाना आम बात है। लेकिन, धार्मिक आस्था के चलते कई यात्री बीमार और असहाय होने के बावजूद केदारनाथ पहुंच रहे है।
स्वास्थ्य विभाग तीर्थयात्रियों को 17 किमी पैदल मार्ग पर हर संभव मदद और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने का दावा कर रहा है लेकिन यात्रा मार्ग पर हर रोज हार्ट अटैक से मरने वाले यात्रियों की बढ़ती संख्या से प्रशासन भी चिंतित है। डीएम मंगेश घिल्डियाल यह कहकर इस मसले से पल्ला झाड़ते नजर आये कि स्वास्थ्य विभाग से जबाब मांगा गया है कि आखिर यात्रियों की मौत क्यों हो रही है।
2013 के भीषण हादसे के बाद केदारनाथ घाटी में पुनर्निर्माण के बड़े-बड़े दावे बेशक किये जा रहे हों लेकिन ग्राउंड जीरो पर स्थिति कुछ और है। घाटी में जो निर्माण कार्य चल रहे हैं वो आधे-अधूरे हैं। श्रद्धालु भारी मुश्किलों का सामना कर बाबा केदरनाथ के दर्शन करने पहुंच रहे हैं। केदारनाथ के अहम पड़ाव सीतापुर में बनी पार्किंग भी खस्ताहाल है।
सबसे ज्यादा दिक्कत गुप्तकाशी-गौरीकुंड के बीच राष्ट्रीय राजमार्ग-107 पर आ रही है। रूद्रप्रयाग जिले में स्थित केदारनाथ धाम के यात्रा पड़ाव गौरीकुंड को राष्ट्रीय राजमार्ग-107 बाकी देश से जोड़ता है। गौरीकुंड से ही केदारनाथ धाम की पैदल यात्रा शुरू होती है। राष्ट्रीय राजमार्ग के गौरीकुंड-गुप्तकाशी के बीच स्थित हिस्से में निर्माण कार्य काफी सुस्ती से चल रहे हैं। हालांकि, यात्रियों की सुविधा को देखते हुए प्रदेश सरकार ने फिलहाल ऑल वेदर रोड के निर्माण के लिए हो रही पहाड़ों की कटिंग पर रोक लगा दी है। इसके बावजूद, कई जगह अब भी मलबा पड़ा है। 12 हजार करोड़ की लागत वाली ऑल वेदर रोड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट का हिस्सा है। यह मार्ग ऋषिकेश को चारों धामों से जोड़ेगा और किसी भी विपरीत मौसम का इस पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
लेकिन इस प्रोजेक्ट के नाम पर ऋषिकेश से आगे देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनि, गुप्तकाशी, फाटा, त्रिजुगीनारायण, गौचर, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग, चमोली, पीपलकोटी, हेंलग से बदरीनाथ तक हजारों पेड़ों का सफाया हो गया है। ‘ऑल वेदर रोड’ के नाम पर 43 हजार पेड़ काटे जा रहे हैं। इस पर पत्रकार शैलेंद्र साहिल एक बड़ा जायज सवाल खड़ा करते हैं कि 10-12 मीटर सड़क विस्तारीकरण के लिए 24 मीटर तक पेड़ों का कटान क्यों किया जा रहा है?
पेड़ों की कटाई के खिलाफ आंदोलन चला रहे सामाजिक कार्यकर्ता विश्वजीत नेगी की चिंता भी वाजिब है। नेगी कहते हैं- यह समझना भी जरूरी है कि एक पेड़ गिराने का अर्थ है, दस अन्य पेड़ों का खतरे में पड़ जाना। सड़क चौड़ीकरण के नाम पर कई प्रजातियों के पेड़ वन निगम काट रहा है, जिसकी छवि केवल ‘वनों को काटो और बेचो’ पर खड़ी है।
लेकिन केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन को पेड़ों की कटाई में कुछ भी गलत नजर नहीं आता। डॉ. हर्षवर्धन के मुताबिक ऑल वेदर रोड के तहत सड़क निर्माण के लिए काटे जा रहे वृक्षों को लेकर ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता इसलिए नहीं है क्योंकि भारत वन क्षेत्र बढ़ाने के मामले में दुनिया में आठवें स्थान पर है।
यात्रा के मुख्यपड़ाव गौरीकुंड से रामबाडा तक पुराना रास्ता अच्छा है लेकिन रामबाडा से केदारनाथ तक 10 किलोमीटर का नया रास्ता खड़ी चढ़ाई वाला है जहा केवल घोड़े से चढ़ा जा सकता है। पैदल सफर करना बेहद जोखिम और मुश्किल भरा है। ऐसे में बुजुर्ग और वैसे यात्री जिन्हे अस्थमा,हृदयरोग की बीमारी है उन्हें घोड़ा या फिर हेलिकॉप्टर से ही यात्रा करने की सलाह दी जा सकती है।
पुनर्निमाण कार्यों का जायजा लेकर लौटे हरीश रावत पुननिर्माण कार्यों पर सवाल उठाते हुए कहते हैं- योजनाबद्ध तरीके से केदारनाथ का पुनर्निर्माण करने के बजाय उसके स्वरूप को बदला जा रहा है। मंदाकिनी में जो कटाव हो रहा है, उसके लिए प्रोजेक्ट जरूरी है। पूर्व में कांग्रेस ने वैकल्पिक निकासी मार्ग और नहरें बनाई थीं। उसमें कुछ काम नहीं किया है। हमारी बनाई सड़क के गड्ढे तक राज्य सरकार ने नहीं भरे हैं।
इस पर बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट जवाब देते हुए कहते हैं – या तो हरीश रावत ने आंख बंद करके केदारनाथ धाम की यात्रा की या वे सच बोलना नहीं चाहते हैं। खुद प्रधानमंत्री केदारधाम में चल रहे पुनर्निर्माण कार्यों पर नजर रखें हुए हैं।
केदारनाथ त्रासदी को बेहद नजदीक से देख चुके पत्रकार शैलेंद्र साहिल इस पर टिपण्णी करते हुए कहते हैं- भगवान केदारनाथ के दर को ये दोनों राजनैतिक दल दर्शन करने के लिए नहीं बल्कि सियासी मैसेज के लिए प्रयोग में ला रहे हैं। इन दलों के लिए तीर्थयात्रियों की मौत कोई मायने नहीं रखती। जबकि यात्रियों की मौत जोखिम और मुश्किल भरे मार्ग में सुविधाओं की कमी के कारण हो रही है।
बेशक, केदारनाथ में पुनर्निर्माण कार्यों पर प्रधानमंत्री विशेष नजर रख ररहे हों, लेकिन घाटी में इतने बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य पर भी सवाल उठ रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 2013 की त्रासदी एक सबक थी लेकिन उससे सबक लेने के बजाय एक और बड़ी त्रासदी की बुनियाद डाली जा रही है। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत सवाल उठाते हुए पूछते हैं – आखिर केदारनाथ धाम और घाटी में इतने बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य का आधार क्या है? क्या केदरापुरी का पुनर्निर्माण वैज्ञानिक सलाह के आधार पर किया जा रहा है? इसका जवाब है नहीं।
केदारनाथ हादसे के बाद केंद्र सरकार ने एक कमिटी बनाई थी। कमेटी के सदस्य और वाडिया इंस्टीट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक प्रदीप श्रीवास्तव कमिटी की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताते हैं कि सोनप्रयाग से केदारनाथ तक के इलाके को निर्माण कार्यों से पूरी तरह अछूता रखने की सिफारिश की गई थी। इस इलाके को प्राकृतिक रूप में रहने की सलाह इसलिए दी गई थी क्योंकि केदारघाटी ग्लेशियर के मोरेन और ढीली मिट्टी पर है और यहां किसी भी तरह का आधुनिक निर्माण खतरनाक हो सकता है। लेकिन केदारपुरी के पुनर्निर्माण में न तो उस रिपोर्ट की सिफ़ारिशों को ध्यान रखा गया और न ही पर्यावरण के मानकों का।
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