बेहद भुरभुरी बुनियाद पर खड़ी है हमारे आज के अनेक लेखकों की महानता

अभिरंजन कुमार जाने-माने पत्रकार, कवि व मानवतावादी चिंतक हैं।

इकबाल ने पहले लिखा-
मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा।

लेकिन बाद में पता चला कि उसने लिखा भले उपरोक्त था, पर उसके मन में यह था-
मजहब हमें सिखाता आपस में वैर रखना
मुस्लिम हैं हम, वतन है पाकिस्तां हमारा।

जब बात हिन्दू-मुस्लिम की आई, तो इकबाल मजहबी भाईचारा भूल गया। वह एक मुसलमान और पाकिस्तानी बन गया।

ठीक इसी तरह हमारे आज के अनेक लेखक हैं, जिनकी कथनी और करनी में भारी अंतर है। उनकी अंतरात्मा नहीं है। अगर है, तो उन राजनीतिक दलों के यहां बंधक है, जिन्होंने गिरोह बनाने, सुविधाएं देने और अहम बनने में उनकी सहायता की है। इसीलिए उनके इशारे पर वे आंय-बांय-शांय लिखते-बोलते हैं। उनके लिखे-बोले में तथ्य और तर्क नहीं होते। वे मानवता के बुनियादी सिद्धांतों पर नहीं चलते, बल्कि अपने आका राजनीतिक दलों और नेताओं द्वारा तय किए गए एजेंडे के हिसाब से बंदूकें भांजते हैं। उनकी नज़र में इंसान की जान की कीमत नहीं होती, बल्कि वोटों के गणित के हिसाब से हिन्दू, मुसलमान, अगड़े-पिछड़े-दलित इत्यादि की जान की कीमत होती है। उनके आका राजनीतिक दलों के लिए जो जाति या संप्रदाय जितना महत्वपूर्ण होता है, उस जाति या संप्रदाय के लोगों की जान उनकी नज़र में कीमती होती है, बाकी सब की कौड़ी भर भी कीमत नहीं।

लेकिन मुझे यकीन है कि समय इकबाल की तरह ही हमारे उन बहुत सारे लेखकों का भी आकलन अवश्य करेगा, जो दलाली, चापलूसी, नोंचा-नोंची, छीना-झपटी करके चंद पुरस्कार झपट लेते हैं और ख़ुद को महान समझने लगते हैं। कई तो कूड़ेदान में दफ़न हो जाएंगे। कई, जो अपनी विशाल प्रतिमाएं बनवाने में कामयाब हो गए हैं, उनकी प्रतिमाओं पर भी हथौड़ा चल जाएगा। अगर नहीं चल पाएगा तो इतिहास उन्हें साहित्य के “शाहजहां” और “मायावती” की तरह ही याद रखेगा।

ऐसा इसलिए भी संभावित है, क्योंकि ये लोग पाठकों में पढ़े जाकर महान नहीं बने हैं, बल्कि गिरोहबाज़ी की वजह से ये महान दिखाई देते हैं।

आज आपको मालूम है हिन्दी में क्या स्थिति है?
 
दस लोग लिखते हैं।
चेले-चपाटियों, मित्रों-परिजनों को मिलाकर वे सौ लोग हो जाते हैं।
वही सौ लोग उन दस लोगों को पढ़ते हैं।
वही सौ लोग उन दस लोगों को पीर और मुल्ला की उपाधि देते हैं।
वही सौ लोग साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करते हैं।
वही सौ लोग उन दस लोगों को छापते रहते हैं।
वही सौ लोग उनपर अच्छी-अच्छी टिप्पणियां करते हैं।
वही सौ लोग अलग-अलग कमेटियों में होते हैं।
वही सौ लोग उन दस लोगों को साहित्य अकादमी समेत तमाम पुरस्कारों से नवाजते हैं।
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चंद लोगों को महान बनाने के इस खेल में 60 करोड़ की हिन्दी आबादी में महज 60 हज़ार लोग भी नहीं हैं। भला इतनी भुरभुरी बुनियाद पर इनकी महानता का किला कब तक टिका रहेगा, समझने की बात है।
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मेरा मानना है कि अगर साहित्य समय का दस्तावेज होता है, तो लेखकों को समाज का मार्गदर्शक बनना चाहिए। उसे पक्षपाती नहीं होना चाहिए। उसे हमेशा पीड़ित के पक्ष में खड़ा होना चाहिए, चाहे वह किसी भी जाति-समुदाय का हो। उसे नाइंसाफ़ी और हिंसा की हर घटना के ख़िलाफ़ लिखना-बोलना चाहिए। उसे सुविधा देखकर चुप्पी नहीं साधनी चाहिए। उसे किसी भी राजनीतिक दल का एजेंडा बांधकर विरोध नहीं करना चाहिए, लेकिन उसे मुद्दों के आधार पर हर राजनीतिक दल को आईना दिखाना चाहिए, ज़रूरी हो तो विरोध भी करना चाहिए और आंदोलन भी करना चाहिए। लेकिन आप किसी से नफ़रत नहीं कर सकते। नफ़रत करने वाले लोग ओछे और बौने होते हैं। ओछे और बौने लोग महान लेखक हो ही नहीं सकते। सीधी सी बात है।

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अगर आप मेरी बात से सहमत हैं, तो धन्यवाद। नहीं भी सहमत हैं, तो आपकी असहमति की आज़ादी का स्वागत और सम्मान है। हम आपको संघी-वामी-कांगी इत्यादि कहकर अपनी नफ़रत और बौद्धिक हिंसा का शिकार नहीं बनाएंगे, जैसे कि हाल ही में एक साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखक ने हमें अपनी बौद्धिक हिंसा का शिकार बनाने की कोशिश की।

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मित्रो, हम एक मानवतावादी तर्कवादी पक्षपातरहित अहिंसा आधारित समाज बनाना चाहते हैं। शुक्रिया।

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