बुलेट ट्रेन तो ठीक, पर अपनी बैलगाड़ियां तो ठीक से चला ले रेलवे!
जिस जापान के सहयोग से हम बुलेट ट्रेन परियोजना की नींव डाल रहे हैं, उसने बुलेट ट्रेन शुरू किया 1964 में और हम शुरू कर पाएंगे 2023 में। यानी हम कमोबेश 60 साल लेट हैं। ऐसे में, मैं कन्फ्यूज़ हूं कि इस मौके पर क्या बोलूं? क्या यह बोलूं कि देर आए दुरुस्त आए? या यह बोलूं कि बुलेट ट्रेन चलाने से पहले रेलवे अपनी बैलगाड़ियों की रफ्तार तो सुधार ले?
सच कहूं तो बुलेट ट्रेन चलेगी, इस बात की मुझे उतनी ख़ुशी नहीं है, क्योंकि चलने को तो हवाई जहाज़ भी चल ही रहे हैं, वो भी दशकों से, लेकिन उससे हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को कितनी रफ़्तार मिल पाती है? मुझे आज भी चिंता अपनी सुपरफास्ट और एक्सप्रेस ट्रेनों की है, जो 1000 किलोमीटर का सफ़र 15 से 18 घंटे में कराने का वादा करती हैं, लेकिन कराती हैं 22 से 28 घंटों में। तिसपर,
(1) किसी ट्रेन में पैन्ट्री कार नहीं है
(2) किसी में अगर पैन्ट्री कार है, तो उसका खाना खाकर फूड प्वायजनिंग हो जाती है
(3) किसी में बीच सफ़र में पानी खत्म हो जाता है
(4) किसी में टॉयलेट जाना पड़े, तो पूर्व जन्म के पाप भोगने जैसा महसूस होता है
(5) किसी में सीटों पर कॉक्रोचों के चिकने-चुपड़े बच्चे हमारे बच्चों से अधिक कॉन्फिडेंट होकर चहलकदमी करते हैं
(6) किसी में अनारक्षित बोगियों की सीटें हासिल करने के लिए गिरोहों की मदद लेनी पड़ती है
(7) किसी में आरक्षित बोगियों में टीटीई को घूस दिए लोगों को अपनी सीट पर बिठाना पड़ता है
(8) किसी में छत पर लदकर चलते हैं लोग
(9) किसी से सामान चोरी हो जाता है
(10) किसी-किसी ट्रेन और रूट में ज़हरखुरानी गिरोह भी सबकी जानकारी में सक्रिय हैं
(11) किसी-किसी में महिलाओँ से छेड़खानी भी हो जाती है
(12) किसी-किसी से लोगों को फेंक दिए जाने की घटनाएं भी हो जाती हैं और फेंकने वाले अंग्रेज़ नहीं, इंडियन ही होते हैं
(13) अक्सर दुर्घटनाएं भी होती ही रहती हैं।
ऐसे में क्या एक बुलेट ट्रेन से रेलवे की नाकामियों पर पर्दा डाला जा सकता है? आज यह कोई सीक्रेट नहीं है कि
(1) पूरी रेलवे माफिया गिरोहों द्वारा संचालित है।
(2) ठसक से आपसे हर वस्तु का एमआरपी से अधिक मूल्य मांगा जाएगा और आपको देना पड़ेगा।
(3) पानी पटरी किनारे फेंके हुए बोतलों में भरकर बेचा जाता है और आपको वही पानी खरीदना पड़ेगा, क्योंकि आईआरसीटीसी का रेल नीर मांगने पर भी शायद ही मिलेगा।
(4) स्टेशन और ट्रेनों में बच्चों और महिलाओं से भीख मंगवाने वाले गिरोह रेलवे प्रशासन के संरक्षण में रेलवे स्टेशनों पर ही तरह-तरह के धंधे कर रहे हैं। दिल्ली के आनंद विहार रेलवे स्टेशन पर एक फूड स्टोर को मैंने स्वयं भीख मांगने वाले बच्चों से पैसों का हिसाब मांगते हुए देखा।
(5) टीटीई और आरपीएफ के जवानों द्वारा वसूली की काट आज तक नहीं ढूंढ़ी जा सकी है।
मुमकिन है कि आप हमारी बातों से सहमत नहीं हों, फिर भी अपनी यह भावना दर्ज करा देता हूं कि रेलवे अब मुझे लुटेरी, जेबकतरी और पॉकिटमार लगने लगी है। पिछले तीन साल में करीब 70 प्रतिशत किराया बढ़ाने और उसके ऊपर डायनामिक फेयर लागू करने के बाद भी जब हम टिकट कटाते हैं, तो रेलवे हमें भिखमंगा बताती है। कहती है कि आपके टिकट पर 43% सब्सिडी दी जा रही है। वह हमसे सवाल पूछती है- “क्या आप जानते हैं कि आपके किराये का 43% देश के आम नागरिक वहन करते हैं?”
जवाब में मैं भी रेलवे से यह सवाल पूछना चाहता हूं कि देश के ये “आम नागरिक” कौन हैं? क्या रेलवे से चलने वाले मुसाफिर “आम नागरिक” नहीं हैं? अगर वे आम नागरिक हैं, तो यह तथाकथित 43% किराया भी तो वही वहन कर रहे हैं न? और अगर रेलवे से चलने वाले मुसाफ़िर आम नागरिक नहीं हैं, तो क्या सुरेश प्रभु, पवन बंसल, दिनेश त्रिवेदी, लालू यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी- ये लोग आम नागरिक हैं, जिन्होंने समय-समय पर रेलवे मुसाफिरों का ख़र्च वहन किया?
दरअसल सरकारें जबसे बनियागीरी पर उतर आई हैं, तबसे वह बात-बात पर देश के आम नागरिकों को बताती हैं कि तुम्हारा फलां-फलां ख़र्च “देश के आम नागरिक” वहन कर रहे हैं, यानी जो आम नागरिक हैं, उन्हें ही वह आम नागरिक मानने से इनकार करने लगी है, जैसे आम नागरिक हमसे-आपसे अलग किसी दूसरे ग्रह के प्राणी या फिर वे ख़ास नागरिक हैं, जो अपने को सेवक, चौकीदार, परहेदार इत्यादि कहते हैं और प्रतिदिन अपने अहसानों के बोझ तले हमें दबाए जा रहे हैं।
दुर्भाग्य यह है कि रेलवे के अधिक खर्च या घाटे पर जब भी चर्चा होती है, तो इस बात पर चर्चा नहीं होती कि यह बढ़ा हुआ खर्च या घाटा लूटपाट, भ्रष्टाचार और निकम्मेपन की वजह से है, न कि किराये कम होने की वजह से।
(1) आप एक ट्रेन को 18 घंटे की बजाय 28 घंटे में मंजिल पर पहुंचाएंगे और कहेंगे कि खर्च बहुत आ रहा है?
(2) आपका टीटीई पैसे लेकर बेटिकट यात्रियों को सफ़र करने देगा और आप कहेंगे कि घाटा हो रहा है?
(3) आप एक बुलेट ट्रेन पर 1 लाख 10 हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च करेंगे और फिर कहेंगे कि नए ट्रैक बनाने और मौजूदा ट्रैक के मेनटेनेन्स के लिए पैसे नहीं हैं?
(4) रेलवे की ज़मीनें और परिसम्पत्तियां बेकार पड़ी रहेंगी और आप कहेंगे कि कमाई नहीं हो रही है?
(5) रेलवे के ठेकों में लूटपाट और भ्रष्टाचार कायम करके अपना खर्च तिगुना-चौगूना बढ़ा लेंगे और हमसे कहेंगे कि आप हमारा ख़र्च उठा रहे हैं?
(6) कर्णधारों के निकम्मेपन और प्रोजेक्ट्स की लेट-लतीफी के कारण अपना कॉस्ट बढाकर आप हमसे कहेंगे कि हमारा 43 प्रतिशत ख़र्च आप उठा रहे हैं?
सच्चाई तो यह है कि आप देश के आम नागरिकों का 43 प्रतिशत ख़र्च नहीं उठा रहे, बल्कि देश के आम नागरिक आपका 100 प्रतिशत ख़र्च उठा रहे हैं। रेलवे में इस वक्त किरायों का जो स्तर है, वह किसी भी लिहाज से कम नहीं है। मेरा स्पष्ट मानना है कि
(1) किराये देश के लोगों की आमदनी के हिसाब से ही हो सकते हैं।
(2) किराये में बढ़ोत्तरी प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरी के प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए।
(3) जितनी आय बढ़ती है, उतना किराया बढ़ाइए।
(4) आय बढ़ने की रफ्तार से अधिक किराये बढ़ने की रफ्तार कैसे हो सकती है?
3 अगस्त 2017 को सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की पीआईबी द्वारा जारी प्रेस रिलीज के मुताबिक, 2014-15 में देश की प्रति व्यक्ति 86,454 रुपये थी, जो 2016-17 में 1,03,219 रुपये हो गई। यानी इस दौरान प्रति व्यक्ति आय बढ़ी करीब 19 फीसदी और प्रति व्यक्ति रेल किराया बढ़ गया करीब 70 प्रतिशत और वह भी बेसिक फेयर के हिसाब से। डायनामिक फेयर तो पांच-पांच छह-छह सौ प्रतिशत अधिक हो जाते हैं। एक हज़ार रुपये का टिकट, जिसमें तीन साल में 70 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी ऑलरेडी शामिल है, डायनामिक फेयर लगाकर वह छह-छह हज़ार रुपये का हो जाता है।
मतलब, पागलपन की इंतहां है। रेलवे के कर्णधार बैलगाड़ियों का किराया हवाई जहाज़ के हिसाब से वसूलना चाहते हैं और महीने में साढ़े आठ हज़ार रुपये की औसत आमदनी वाले आम नागरिकों को अंबानी-अडानी समझते हैं और उन्हें बेइज़्ज़त भी करते हैं कि तुम्हारा पैसा कोई और भर रहा है। जो लोग अपनी ज़िम्मेदारियां ठीक से नहीं संभाल पाने की वजह से मैदान छोड़कर भाग गए, उनका प्रचार तंत्र उन्हें सालों-साल बड़ा ही काबिल बताता रहा।
इसलिए, रेलवे अगर कुछ करना चाहती है, तो वह अपने भीतर निहित भ्रष्टाचार, काहिली और निकम्मापन रोके, जैसा कि देश के प्रधानमंत्री कहते हैं कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा। न सोऊंगा, न सोने दूंगा। और फिर अपनी बैलगाड़ियों को समय से चला ले। लोगों को थोड़ी सुरक्षा दे दे और स्वच्छ भारत अभियान के विचार का लेशमात्र भी पालन कर ले।
इन्हें भी पढ़ें-
- ऑक्सीजन की कमी से बचपन में ही गुज़र गए 63 रामनाथ कोविंद और नरेंद्र मोदी!
- इनसेफलाइटिस प्रसंग: एक ‘हत्यारी सरकार’ जाती है, दूसरी ‘हत्यारी सरकार’ आती है!
- बहस लाइव ALARM: क्या कम हो रही है प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता?
- चार साल के भीतर मोदी-आरएसएस की गोदी में वापस आ बैठना नीतीश की बहुत बड़ी हार है!
- लालू-नीतीश तलाक प्रसंग: हम विचारों को बदलते रोज़ लुंगी की तरह, मुल्क को अब है बजाना रोज़ पुंगी की तरह!
- एनडीटीवी प्रसंग: हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी?
- मनमोहन के दफ़्तर के निर्देश पर एनडीटीवी ने हटा लिया था लेख?
- 30 कड़वे सवाल, जिनपर चिंतन करना मुसलमानों के हित में!
- जो धर्म डराए, जो किताब भ्रम पैदा करे, उसमें सुधार की सख्त ज़रूरत- अभिरंजन कुमार
- व्यंग्य: राष्ट्रपति पद की गरिमा सुरक्षित व बरकरार रखने के दस नायाब सुझाव
- व्यंग्य: जनता के हिस्से केवल ख्वाब और चूहों को पिलाई जा रही शराब!
- मेरी हिन्दू दुकान, तेरी मुस्लिम दुकान… भाड़ में जाए मानवता और ईमान!
- बधाई अमिताभ बच्चन… बेटियों के लिए मां-बाप से बड़ा अपराधी कोई नहीं!
- पहचान लीजिए नंगई के सात सौदागरों को!
- ये कैसे स्त्रीवादी, जो कपड़े उतारने की आज़ादी तो देते हैं, पहनने की नहीं?