कम्युनिस्टों की राजनीति से कितने नाराज़ हैं अमर शहीद भगत सिंह- जानिए इस ड्रीम इंटरव्यू में
मेरे कम्युनिस्ट दोस्त अमर शहीद भगत सिंह को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से भी अधिक मानते हैं। इसलिए यह तो स्वाभाविक है कि गांधी के रास्ते पर वे कभी नहीं चले, लेकिन हैरानी इस बात की है कि भगत सिंह के रास्ते से भी वे भटकते चले गए। नौबत यहां तक पहुंच गई कि सिर्फ़ नक्सलवादियों और माओवादियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन तक ही वे नहीं रुके, बल्कि आतंकवादियों और अलगाववादियों के भी प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन तक पहुंच चुके हैं। इसलिए अक्सर मैं सोचता था कि आज अगर भगत सिंह जीवित होते, तो क्या कहते, क्या करते? मेरी इस जिज्ञासा को शांत किया स्वयं अमर शहीद भगत सिंह ने। आज सुबह वे मेरे सपने में आए और एक लंबा एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दिया, जो इस प्रकार है-
मैं- अमर शहीद, आप मेरे सामने हैं, मुझे यकीन नहीं हो रहा। शायद यह मेरे जीवन का सबसे कीमती लम्हा है। आप अगला-पिछला जन्म नहीं मानते। मैं भी नहीं मानता। लेकिन ईश्वर से प्रार्थना करूंगा कि अगर यह होता है, तो इस लम्हे की याद मुझे अगले जन्मों में भी भूलने न दें। आज तक मैंने जितने भी लोगों के इंटरव्यू किये, सबका अभिवादन हाथ मिलाकर या हाथ जोड़कर किया, लेकिन आपका इंटरव्यू मैं आपके पैर छूकर शुरू करना चाहता हूं।
भगत सिंह- अगर आप मेरे समकालीन होते, तो पैर छूने से मना करता, लेकिन मुझसे 68-69 साल छोटे हैं, इसलिए मेरे पोते या पड़पोते जैसे हैं। आपको बहुत-बहुत आशीष।
मैं- अमर शहीद, लाग-लपेट वाला इंटरव्यू मैंने कभी नहीं किया। इसलिए शुरू में ही स्पष्ट कर दूं कि मैं आपसे मुख्य रूप से भारतीय कम्युनिस्टों की राजनीति के बारे में बात करना चाहता हूं, क्योंकि और कुछ हो न हो, उनकी आंखों में इतना पानी अवश्य बचा है कि आपके नाम का झंडा वे आज तक ढो रहे हैं।
भगत सिंह- मैं भी आपके सामने इसीलिए आया हूं, ताकि मैं अपने उन भटके हुए दोस्तों से अपने दिल की बात कह सकूं।
मैं- अमर शहीद, हिंसा की राजनीति का आप कितना समर्थन करते हैं?
भगत सिंह- चूंकि अंग्रेज़ों द्वारा हमारे महान नेता लाला लाजपत राय की हत्या के प्रतिशोध में एक “सांडर्स वध” की घटना हुई थी और फिर मैने अंग्रेज़ों की सेंट्रल असेंबली में, किसी को नुकसान न पहुंचे, इसका ख्याल रखते हुए एक बम फोड़ा था, इसलिए कई लोग मुझे हिंसा से जोड़ देते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि मैं भी अहिंसा के रास्ते पर ही चलने वाला व्यक्ति था। मैंने अपने जीवन में कभी किसी बेगुनाह व्यक्ति का ख़ून नहीं बहाया। बम फोड़ा इसलिए, क्योंकि दूसरे मुल्क से आकर अंग्रेज़ हमारे मुल्क का तरह-तरह से शोषण कर रहे थे। उनके कानों तक हम लोगों की आवाज़ पहुंच नहीं रही थी। इसलिए हमने सोचा कि बहरों को सुनाने के लिए एक धमाका करना चाहिए। लेकिन आज के कम्युनिस्टों ने न जाने क्यों, हिंसा को ही अपना धर्म बना लिया है। यह जानकर मेरी आत्मा को काफी कष्ट पहुंचता है, कि जहां-जहां उनकी सरकारें रहीं, चाहे पश्चिम बंगाल हो या केरल… वहां-वहां उन्होंने काफी राजनीतिक रक्तपात किया है और हज़ारों लोगो की जानें ली हैं। यह मेरा रास्ता नहीं है। अंग्रेज़ ग़ैर थे। वे हमारे भू-भाग पर कब्ज़ा किए हुए थे। हमें अपना देश आज़ाद कराना था। इसलिए उस वक्त की हमारी रणनीति अलग थी। अगर मैं आज़ाद भारत में जी पाता, तो इस बात के बावजूद कि ढेर सारी विसंगतियां बची रह गई हैं, अपनी जनता और अपनी सरकारों को सही रास्ते पर लाने के लिए हम दूसरा रास्ता अपनाते, जो कि निश्चित रूप से अहिंसा और लोकतांत्रिक विचार-विमर्श का ही होता।
मैं- अमर शहीद, सिर्फ़ पश्चिम बंगाल और केरल में अनगिनत राजनीतिक हत्याओं का ही प्रश्न नहीं है, आज देश में जगह-जगह कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग हिंसा कर रहे हैं। कहीं पटरियां उखाड़कर रेल दुर्घटनाएं करा रहे हैं, कहीं लैंड माइन्स बिछा रहे हैं, कही पेड़ों की फुनगियों पर चढ़कर गोलियां बरसा रहे हैं, कहीं देश की पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों की हत्याएं करके हमारी न जाने कितनी मांओं-बहनों के सुहाग उजाड़ रहे हैं, कितने बच्चों को अनाथ कर रहे हैं। कम्युनिस्टों का राजनीतिक नेतृत्व इन घटनाओं की निंदा तो करता है, लेकिन उसके साथ किंतु-परंतु, अगर-मगर लगा देता है। ख़ुद मुझसे साक्षात्कार में दिवंगत कम्युनिस्ट नेता एबी वर्द्धन ने स्वीकार किया था कि नक्सलवादियों और माओवादियों के साथ उन लोगों की सहानुभूति है।
भगत सिंह- सहानुभूति तब तक होनी चाहिए, जब तक लोग बातचीत करने को तैयार हों, बेगुनाहों का ख़ून न बहाने पर सहमत हों, लेकिन जब एक बार किसी को बेगुनाहों के ख़ून का स्वाद लग जाए, तो उसके साथ सहानुभूति रखना अन्य बेगुनाहो की ज़िंदगियों को भी ख़तरे में डालना है। अपनी पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों के साथ हम अंग्रेज़ों की पुलिस जैसा व्यवहार नहीं कर सकते। अगर नक्सलवादी और माओवादी हमारे लोग हैं, तो ये पुलिस वाले और सीआरपीएफ के जवान भी तो हमारे ही लोग हैं। ये भी उतने ही गरीब हैं। ये भी समाज की आखिरी पंक्ति में खड़े लोग हैं। ये भी किसी का ख़ून बहाने के मकसद से नहीं, बल्कि अपने बीवी-बच्चों का पेट पालने के लिए ही पुलिस और सीआरपीएफ में भर्ती हुए हैं। उनसे कैसी दुश्मनी? दुश्मनी तो हमें सरकार से भी नहीं रखनी चाहिए। ये सरकार में बैठे हुए लोग कौन हैं? ये भी तो हमारे ही बीच से निकले हैं। चुनाव होता है, उससे जीतकर निकले हुए हमारे प्रतिनिधि मिलकर सरकार बनाते हैं। अगर उस स्तर पर भ्रष्टाचार और नाइंसाफ़ी हो रही है, तो इसलिए हो रही है, क्योंकि हम भी तो भ्रष्ट हैं। हम भी तो दूसरों का हक़ मारना चाहते हैं। अगर हम ईमानदार और इंसाफ़-पसंद हैं, तो भ्रष्ट और नाइंसाफ़ियां करने वालों को कैसे चुन रहे हैं? हालांकि कई लोग कहते हैं कि गांधीजी ने मेरी फांसी रुकवाने का प्रयास नहीं किया, लेकिन मैं व्यक्तिगत गांधीजी के प्रति बहुत आदर और श्रद्धा का भाव रखता हूं। उनकी एक बात को संदर्भ लेकर कहूंगा कि जब हम अपनी सरकार और व्यवस्था में बैठे लोगों की तरफ़ एक उंगली उठाते हैं, तो तीन उंगलियां हमारी तरफ़ भी होती हैं। सुधार सिर्फ़ सरकार और व्यवस्था में बैठे लोगों के स्तर पर नहीं, हर व्यक्ति के स्तर पर आवश्यक है। जब तक हर व्यक्ति के स्तर पर सुधार नहीं होगा, तब तक सरकार में सुधरे हुए लोग कैसे पहुंचेंगे, यह आप खुद ही सोचकर देखिए। और सुधरे हुए लोग तो कम्युनिस्टों की सरकार में भी नहीं पहुंच पाए, फिर मेरे कम्युनिस्ट अनुयायी किस सुधार की बात करते हैं? सुधार सिर्फ़ दूसरों के लिए या अपने लिए भी? सुधार की प्रक्रिया एक दिन में पूरी नहीं होती। यह धीरे-धीरे चलती रहती है। भारत में भी चल रही है। रफ्तार अगर धीमी है, तो हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि मिलकर इसे तेज़ करें। और यह रफ्तार तेज़ तभी होगी, जब हम अहिंसा और लोकतांत्रिक संवाद का रास्ता अपनाएं। जन-आंदोलन ज़रूरी हैं, लेकिन ये अहिंसात्मक तरीके से होने चाहिए। अपने ही देश में हम अपनी ही संपत्तियों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते, अपने ही लोगों की हत्याएं नहीं कर सकते। पटरियां उखाड़ना, ट्रेनें उड़ाना, लैंड माइन्स बिछाना, गोलियां चलाना- यह सब पागलपन है और मुझे संदेह है कि हमारे देश को अस्त-व्यस्त करने के लिए कुछ विदेशी मुल्कों की भी इसमें साज़िश हो सकती है।
मैं- अमर शहीद, जब भी हिंसा की किसी घटना का बचाव कर पाने की स्थिति नहीं होती है, तो हमारे कम्युनिस्ट दोस्त ज़िम्मेदारी की गेंद अन्यान्य दिशाओं में उछालकर लोगों को भ्रमित करने का प्रयास करते हैं। कभी कहेंगे कि नक्सलवादियों ने किया। आप कहें कि नक्सलवादियों ने किया; तो कहेंगे कि नहीं, माओवादियों ने किया। जब आप समझेंगे कि माओवादियों ने किया; तो बताएंगे कि नहीं, मार्क्सवादी-लेनिनवादियों ने किया। यह क्या माजरा है?
भगत सिंह- यह सब बेकार की दलीलें हैं। आप चंद किताबें पढ़कर पार्टी या संगठन बना लेते हैं, लेकिन ये किताबें आम आदमी के मतलब की नहीं होतीं। हत्या तो हत्या है। चाहे कथित नक्सलवादी करें या माओवादी करें या मार्क्सवादी करें या लेनिनवादी करें या इनका कथित मुख्यधारा राजनीतिक नेतृत्व करे या करवाए। इन्हें सिद्धांतों का आवरण नहीं दिया जा सकता। बिना अगर-मगर किंतु-परंतु लगाए इनकी पुरज़ोर निंदा की जानी चाहिए। और केवल निंदा ही नहीं की जानी चाहिए, इनके ख़िलाफ़ लोकतांत्रिक तरीके से अभियान छेड़ा जाना चाहिए। जो बेगुनाहों की हत्याएं करते-करवाते हैं, वे मानवता के शत्रु हैं, राष्ट्र के शत्रु हैं, आम-अवाम के शत्रु हैं। अंग्रेज़ों से भी बदतर हैं। मेरे विचार से उनके ख़िलाफ़ भी हमें वैसा ही रुख़ अपनाने की ज़रूरत है, जैसा रुख़ हमने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपनाया था।
मैं- अमर शहीद, बात यहीं तक नहीं रुकी है। आपको तो मालूम ही है कि आपके न रहने के बाद इस देश में हिन्दू-मुस्लिम ताना-बाना किस तरह से बिखर गया और 1947 में देश का विभाजन हो गया। आज एक बार फिर…
भगत सिंह- क्षमा चाहूंगा। आप सवाल को आगे बढ़ाएं, इससे पहले मैं कुछ कहना चाहता हूं, क्योंकि आपने मेरी दुखती रग पर उंगली रख दी है। भारत-पाक विभाजन से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण घटना इस देश के इतिहास में मेरी नज़र में कोई दूसरी नहीं हुई। मेरी तो जन्मस्थली और मृत्युस्थली दोनों पाकिस्तान चली गई। यह दिन देखने के लिए तो मैं फांसी नहीं चढ़ा था। माफ़ कीजिए। गांधी जी ने कहा ज़रूर था कि भारत-पाकिस्तान का विभाजन उनकी लाश पर होगा। लेकिन अगर मैं 1931 में फांसी नहीं चढ़ा होता, तो 1947 में सचमुच भारत-पाकिस्तान का विभाजन या तो मेरी लाश पर ही होता, या अगर मेरे देशवासी मुझे जीवित रखना चाहते, तो नहीं होता। मैं तो देश के लिए मरने को तैयार ही था। 1931 में नहीं मरता, तो 1947 में मरता। 1947 में नहीं मरता, तो बेगुनाहों की जान से खेलने वाले किसी क्रूर-बर्बर हत्यारे के सामने अपनी छाती कर देता कि आओ पहले मुझे मारो।
मैं- अमर शहीद, आपको सफ़ाई देने की ज़रूरत नहीं है। देश के लिए आपकी कुर्बानी विश्व के इतिहास में सर्वोत्तम है। आप ईश्वर को नहीं मानते, लेकिन मेरा विश्वास है कि आपकी इस कुर्बानी पर समस्त देवी-देवता भी रोए होंगे और भाव-विह्वल होकर पुष्पवर्षा भी की होगी। अपने सवाल को आगे बढ़ाता हूं कि आज एक बार फिर भारत के कश्मीर में धर्म के नाम पर विभाजन की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। इसे उसी पाकिस्तान से शह मिल रही है, जो पहले ही धर्म के नाम पर हमसे अलग हो चुका है। जो आतंकवादी वहां हिंसा कर रहे हैं, बेगुनाहों को मार रहे हैं, उन्हें पाकिस्तान ही नहीं, भारत के कई कम्युनिस्ट भी आज़ादी के सिपाही ठहरा रहे हैं।
भगत सिंह- यह मानसिक दिवालियापन है। यह आज़ादी की लड़ाई नहीं है। आज़ादी ग़ैरों से होती है, अपनों से नहीं होती। हमने जो लड़ाई लड़ी, वह आज़ादी की लड़ाई थी, क्योंकि वे ग़ैर थे, जो दूसरे मुल्क से हमारे मुल्क में लूट और शोषण करने आए थे। लेकिन न तो पाकिस्तान के लोगों के लिए हम ग़ैर थे, न कश्मीर के लोगों के लिए ग़ैर हैं। इसलिए वहां पर जो भी लोग हिंसा कर रहे हैं, वे आतंकवादी ही हैं। वे आज़ादी के सिपाही नहीं हैं। पाकिस्तान उन्हें आज़ादी का सिपाही बताएगा, यह स्वाभाविक है, लेकिन हमारे यहां के जो लोग उन्हें आज़ादी का सिपाही मानते हैं, देश के प्रति उनकी निष्ठा संदिग्ध मानी जानी चाहिए। धर्म के नाम पर बार-बार विभाजन की स्थितियां नहीं बनने देनी चाहिए। यह न सिर्फ़ भारत-पाक सहित इस पूरे क्षेत्र के लिए विनाशकारी होगा, बल्कि इससे शेष भारत के भीतर भी सांप्रदायिक सौहार्द्र के वातावरण में ऐसा खलल पड़ सकता है, जो मानवता के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगा।
मैं- अमर शहीद, हमारे कई कम्युनिस्ट दोस्त आतंकवादियों के मानवाधिकारों के लिए भी आंदोलन करते हैं, लकिन हमारे देश की सेना को बलात्कारी बताते हैं। सेना के जवानों की हत्याएं की जाती हैं, उनपर पत्थर चलाए जाते हैं, तो उन्हें दर्द नहीं होता, लेकिन अभी एक पत्थरबाज़ को सेना के जवान ने जीप की बोनट पर क्या बांध दिया, तो मानवाधिकार-मानवाधिकार चिल्लाने लगे।
भगत सिंह- मानवाधिकार एक अत्यंत ही पवित्र विचार है और इसे मानवता की भलाई के लिए विकसित किया गया है। इसका मकसद यह है कि किसी भी निर्दोष व्यक्ति को शासन-प्रशासन द्वारा परेशान न किया जाए। लेकिन इसका यह मकसद कतई नहीं है कि इसकी आड़ में हत्यारों, आतंकवादियों और देश के दुश्मनों का बचाव किया जाए। वास्तव में कम्युनिस्ट लोग मानवाधिकार के विचार को समझ ही नहीं पाए हैं। चूंकि वे स्वयं हिंसा की राजनीति में भरोसा रखते हैं, इसलिए हिंसा करने वालों के बचाव के लिए वे मानवाधिकार जैसे पवित्र विचार का दुरुपयोग करते हैं। मानवाधिकार, जैसा कि इस शब्द से ही स्पष्ट है कि यह मानवों के अधिकार की बात करता है। अगर कोई व्यक्ति मानवोचित व्यवहार नहीं करता है या बेगुनाह मानवों के प्रति हिंसा करता है, या किसी भी रूप में मानवता के लिए ख़तरा बन जाता है, तो यह उसके लिए लागू नहीं होना चाहिए। जहां तक सेना का सवाल है, तो हमारे कम्युनिस्ट दोस्तों को नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के हर देश में सेना होती है और वे तमाम देश अपनी सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहते हैं। इक्का-दुक्का घटनाओं के आधार पर पूरी सेना को गाली नहीं दी जानी चाहिए। ठीक वैसे ही, जैसे कुछ घटनाओं के आधार पर जब सारे कम्युनिस्टों को गाली दी जाएगी, तो उन्हें बुरा लगेगा। जिस रूस और चीन से वे सर्वाधिक प्रेरणा लेते रहे हैं, उस रूस और चीन को देखें कि उन्होंने अपनी सेना को कितना सबल बनाया है और उसके प्रति कितना सम्मान रखते हैं। उनके सैनिकों को आप छूकर दिखाएं, फिर वे आपको बताएंगे कि इसका अंजाम क्या होता है। यह सिर्फ़ भारत में ही होता है, जहां कुछ लोग अपनी सेना को गाली देते हैं। सैनिकों को भी आत्मरक्षा का अधिकार होना चाहिए। अगर आत्मरक्षा में वे गोलियां भी चलाते हैं, तो इसे मानवाधिकार का हनन नहीं कहा जा सकता। फिर, अपनी रक्षा के लिए किसी पत्थर चलाने वाले को जीप की बोनट पर बांध देना कौन-सा अपराध हो गया? मुझे नहीं मानते, तो मत मानिए। गांधी को तो मानिए, जिन्हें आप राष्ट्रपिता कहते हैं। यह तो सर्वाधिक गांधीवादी तरीका था, जो हमारी सेना ने अपनाया। अगर वह गोली चलाए, तो भी समस्या। गोली न चलाकर आत्मरक्षा और शांति के लिए रक्तहीन तरीका ढूंढ़े, तो भी समस्या। यह तो कोई बात नहीं हुई। अगर आप सेना के दोनों हाथ, दोनों पैर बांध देंगे, तो क्या ख़ुद चैन से जी सकेंगे? चूंकि मैं ख़ुद भी एक प्रकार से सैनिक ही रहा हूं, इसलिए मैं हमेशा अपने सैनिकों के साथ खड़ा रहूंगा। भारत में एक हज़ार विसंगतियां हैं, लेकिन हमारा विश्वास है कि हमारी सेना अन्य मुल्कों की सेनाओं से अधिक ज़िम्मेदार है। हमें इसकी ताकत बननी चाहिए, न कि इसे कमज़ोर करना चाहिए। हां, अगर इसे नुकसान पहुंचाए बिना हम इसे निरंतर बेहतर और अधिक ज़िम्मेदार बनाते रहने की कोशिश कर सकें, तो यह एक आदर्श स्थिति होगी और इसमें कोई बुराई नहीं है।
मैं- अमर शहीद, इधर हमारे कुछ कम्युनिस्ट साथी देश की समस्त शक्तियों के केंद्र संसद भवन पर हमला करने वाले अफ़ज़ल गुरु की भी बरसी मनाते हैं, मुंबई में सैकड़ों बेगुनाहों के हत्यारे याकूब मेमन की भी फांसी रुकवाने के लिए मध्यरात्रि को सुप्रीम कोर्ट खुलवा देते हैं और कश्मीर घाटी में पाकिस्तानी मास्टरमाइंडों के रिक्रूट बुरहान वानी को भी आजकल का भगत सिंह बताते हैं, यानी आपसे तुलना करते हैं। क्या कहेंगे?
भगत सिंह- भाई, अगर आप अफ़ज़ल गुरु, याकूब मेमन या बुरहान वानी जैसे देश के दुश्मनों से सहानुभूति रखते हैं या उनमें से किसी की मुझसे तुलना करते हैं, तो कृपया पहले इस देश के हर घर से मेरी तस्वीरें उतार दीजिए, मेरे तमाम स्मारकों को ध्वस्त कर दीजिए और जहां कहीं भी मेरा नाम लिखा हो, उसे मिटा दीजिए। मेरे रास्ते पर चल नहीं सकते, तो कम से कम मेरी बेइज़्ज़ती तो मत कीजिए।
मैं- अमर शहीद, आपकी भावना की कद्र करता हूं, लेकिन देश में कम्युनिस्ट विचारों के सबसे बड़े केंद्र जेएनयू में देश के टुकड़े-टुकड़े करने के मंसूबे ज़ाहिर किए जाते हैं, घर-घर में आतंकवादी पैदा करने की ख्वाहिश जताई जाती है और इस घटना को कम्युनिस्ट संगठनों के छात्र नेताओं का भी समर्थन रहता है। फिर, पुलिसिया कार्रवाई के बाद देश के कुछ बड़े नेता वहां जाकर कहते हैं कि छात्रों की आवाज़ दबाई जा रही है। फिर, “ख़ुद नारे लगाए कि नहीं लगाए” जैसे तकनीकी पहलू में उलझाकर उन छात्र नेताओं को बचाने की कोशिश होती है, जिन्होंने इस आयोजन को अपना पूरा समर्थन दिया था। इतना ही नहीं, उन छात्र नेताओं की भी तुलना आपसे की जाती है। क्या कहेंगे इसपर?
भगत सिंह- ऐसी घटनाओं से मेरी आत्मा को कितनी चोट पहुंचती होगी, इसका आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते। हमारे शिक्षण संस्थानों में देश की तरक्की सुनिश्चित करने वाली पीढ़ी तैयार होनी चाहिए, न कि अभिव्यक्ति व विचारों की आज़ादी के नाम पर देश के टुकड़े-टुकड़े करने का मंसूबा बांधने वाले लोगों को प्रश्रय मिलना चाहिए। वैसे जो भी नेता वहां उस देश-विरोधी घटना के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन में गए, देश की जनता ने उन्हें राजनीतिक तौर पर उसका सबक सिखाने की कोशिश की है। अगर वे समझ पाए, तो ठीक, वरना आगे उन्हें और भी बुरे नतीजे झेलने पड़ेंगे। भारत एक बार विभाजन झेल चुका है। मुझे पूरा विश्वास है कि यह आगे विभाजन की किसी भी साज़िश से निपटने में सक्षम है। जहां तक उस देशविरोधी घटना को समर्थन देने वाले छात्र नेताओं की मुझसे तुलना की बात है, तो मुझे लगता है कि इस देश के कुछ लोग आज तक मुझे समझ ही नहीं पाए हैं। किसी दिन दाऊद इब्राहिम और वीरप्पन से भी वे मेरी तुलना कर सकते हैं। उन्हें सद्बुद्धि मिले, इससे ज़्यादा क्या कह सकता हूं?
मैं- आप ख़ुद कम्युनिस्ट हैं। आज़ाद भारत में आप अपने विचारों को संक्षेप में कैसे व्यक्त करेंगे?
भगत सिंह- देखा जाए, तो इस मामले में मेरे और महात्मा गांधी के विचारों में कोई बुनियादी फ़र्क़ नहीं है। गांधी जी अंतिम व्यक्ति की बात करते हैं। मैं किसानों-मज़दूरों की बात करता हूं। दोनों एक ही बात है। हमारा कहना है कि देश की सरकार को, समाज को, हर व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर समाज के सबसे कमज़ोर व्यक्तियों के प्रति संवेदनशील और प्रतिबद्ध होना चाहिए। एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहना चाहिए। जाति-धर्म की संकीर्णताओं से ऊपर उठना चाहिए। देश की तरक्की के लिए काम करना चाहिए। अब हम अंग्रेज़ों को देश से बाहर करने की लड़ाई नहीं लड़ रहे, बल्कि ख़ुद अधिक ज़िम्मेदार बनने और अपने लोगों को अधिक ज़िम्मेदार बनाने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए हम सबको अहिंसा और लोकतांत्रिक संवाद का रास्ता अपनाना चाहिए।
मैं- अमर शहीद। आखिरी सवाल। आज अगर आप जीवित होते, तो हमारे कम्युनिस्ट दोस्तों के हिंसावादी विचारों, जो अक्सर नक्सलवाद-माओवाद या आतंकवाद-अलगाववाद के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन के रूप में सामने आते रहते हैं, उन्हें देखकर आपकी क्या प्रतिक्रिया होती?
भगत सिंह- देखिए, चूंकि मैं एक योद्धा हूं, इसलिए आत्महत्या तो करता नहीं। हां, इस बार मैं अपने कम्युनिस्ट दोस्तों की असेंबली के बाहर किसी को नुकसान न पहुंचाने वाला बम फोड़कर गिरफ़्तार हो जाता और जज से स्वयं विनती करता कि मुझे फांसी दे दो। मेरा नाम बेचने वाले रास्ता भटक चुके हैं। मैं अब जीना नहीं चाहता।
इतनी बात हुई कि मेरी आंखें खुल गईं। मुझे लगा कि अमर शहीद का संदेश देश तक पहुंचा दूं। शुक्रिया।