10 साल उपराष्ट्रपति रहकर भी धार्मिक खोल से बाहर नहीं निकल पाए हामिद अंसारी!
जब आप एक धार्मिक खोल में लिपटे रहते हैं, तो आपकी वह स्वीकार्यता नहीं बन पाती, जो संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति की होनी चाहिए। हामिद अंसारी के साथ भी ऐसा ही हुआ। देश के बहुसंख्यक, खासकर राष्ट्रवादी और हिन्दुत्ववादी लोग उन्हें एक कट्टरपंथी मुस्लिम के तौर पर ही देखते रहे। चाहे राष्ट्रध्वज को सलामी नहीं देने से जुड़ा विवाद हो या फिर योग दिवस समारोहों से अनुपस्थित रहने से जुड़ा विवाद, बहुमत में राय यही बनी कि हामिद अंसारी का व्यवहार एक धर्मनिरपेक्ष देश के उपराष्ट्रपति जैसा नहीं, बल्कि एक कट्टरपंथी मुस्लिम नेता जैसा रहा।
हालांकि दिलचस्प यह भी है कि हामिद अंसारी की पत्नी सलमा अंसारी उनके ठीक उलट काफी लिबरल प्रतीत हुईं। उन्होंने योग, “ऊं” के उच्चारण और सूर्य नमस्कार जैसे विवादों पर काफी उदारवादी विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि “ऊं” के उच्चारण से ऑक्सीजन मिलती है। योग के बारे में उन्होंने कहा कि यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा है और मैं भी योग करती हूं। सूर्य नमस्कार के बारे में भी उन्होंने कहा कि पुराने ज़माने में इतनी हाय-तौबा नहीं थी, लेकिन अब चीज़ों को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है।
इस वजह से मुझे हमेशा लगता रहा कि भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने में ढलने में हामिद अंसारी अपनी पत्नी से भी पीछे रह जाते हैं। फिर यह भी लगता रहा कि अगर वे दो टर्म उपराष्ट्रपति रह गए, तो उनकी सबसे बड़ी योग्यता ही उनकी मुस्लिम पहचान थी, जैसे कि हमारे नए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जी की सबसे बड़ी योग्यता उनकी दलित पहचान ही है और यह मैं नहीं कह रहा, बल्कि स्वयं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी का एलान करते हुए उनकी दलित पहचान पर विशेष ज़ोर दिया था।
शायद इसी वजह से हामिद अंसारी मुस्लिम वाली अपनी पहचान से उबरना नहीं चाहते होंगे, जैसे हमारे कई भाजपाई भाई-बंधु हिन्दू वाली अपनी पहचान से ऊपर नहीं उठना चाहते। मुसलमानों में असुरक्षा की भावना को लेकर हामिद अंसारी के ताज़ा बयान को भी मैं इसी कड़ी में देख रहा हूं। ऐसा बयान देकर जाते-जाते उन्होंने उन लोगों को ऑबलाइज़ किया है, जिन्होंने उन्हें दो-दो बार उपराष्ट्रपति बनने का सौभाग्य प्रदान किया।
यूं भी, हामिद अंसारी ने उपराष्ट्रपति रहते हुए उन लोगों को ऑबलाइज़ करने का कोई मौका नहीं छोड़ा, जिन्होंने उन्हें इस कुर्सी पर बिठाया था। 30 दिसंबर 2011 को जब राज्यसभा में लोकपाल विधेयक पर गरमागरम चर्चा हो रही थी और मतदान होने पर सरकार के हार जाने की स्थिति थी, हामिद अंसारी ने सदन को अचानक अस्थायी रूप से स्थगित कर दिया था। वह सारा खेल पूर्वनियोजित लगा और उपराष्ट्रपति भी उस खेल की स्क्रिप्ट के एक पात्र मात्र ही लगे। इसी तरह, राज्यसभा का सभापति रहते हुए राज्यसभा टीवी को उन्होंने धुर मोदी-विरोधी चैनल में तब्दील कर दिया। हालात ऐसे बना दिए गए कि राज्यसभा टीवी में काम करना है या उसकी स्क्रीन पर दिखना है, तो मोदी-विरोध करना है।
बहरहाल, जाते-जाते अगर उपराष्ट्रपति ने कहा है कि मुसलमानों के भीतर बेचैनी है और वे असुरक्षा महसूस कर रहे हैं, तो इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। मैं भी मानता हूं कि उनमें एक बेचैनी और असुरक्षा की भावना तो है, लेकिन साथ ही मेरा यह भी मानना है कि इस बेचैनी और असुरक्षा के लिए अकेले मोदी सरकार ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि वे लोग अधिक ज़िम्मेदार हैं, जो मुसलमानों में बेचैनी और असुरक्षा की भावनाएं भड़काकर उन्हें अपने पाले में बनाए रखने की राजनीति करते हैं।
जिस कांग्रेस के राज में अनगिनत दंगे हुए, जब देश में उसकी सरकार बनती है, तो किसी के भीतर बेचैनी नहीं होती, लेकिन गुजरात दंगों के 12 साल बाद मोदी की सरकार बनी, तो इतनी बेचैनी क्यों महसूस होने लगी? दिल्ली दंगे को बड़ा पेड़ गिरने के बाद धरती हिलने की क्रिया बताने वाले राजीव गांधी को लेकर अमनपसंद लोग कभी इतने बेचैन नहीं हुए, फिर गुजरात दंगे को क्रिया की प्रतिक्रिया बताने वाले नरेंद्र मोदी को लेकर यह अमिट बेचैनी उनमें कहां से आ गई? दिल्ली के सिख-विरोधी दंगे के दौरान देश के गृह मंत्री रहे पीवी नरसिंह राव सात साल बाद देश के प्रधानमंत्री बना दिए गए, लेकिन कोई बेचैन नहीं हुआ, फिर गुजरात दंगे के समय राज्य के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी 12 साल बाद देश के प्रधानमंत्री बन गए, तो इतनी बेचैनी क्यों?
दरअसल लोकतंत्र के सिपाहियों ने मोदी की लोकतांत्रिक जीत को कभी सही भावना से ग्रहण ही नहीं किया। हम स्वयं कभी मोदी के समर्थक नहीं रहे, लेकिन हमने उनकी जीत को जनता का आदेश माना और तय किया कि मुद्दों के आधार पर ही विरोध या समर्थन करेंगे, न कि पूर्वाग्रह के आधार पर। इसीलिए आज भी जब हमें मौका मिलता है, मोदी और उनकी सरकार की खुलकर आलोचना करते हैं और हमारी अभिव्यक्ति व विचारों की आज़ादी का बाल भी बांका नहीं हुआ। अभिव्यक्ति और विचारों की आज़ादी सिर्फ़ उन्हीं की ख़तरे में पड़ी, जो विपक्षी पार्टियों की सरकारों के दौरान मलाइयां चाट रहे थे और आज उनकी मलाइयां चाटने की आज़ादी ख़तरे में पड़ गई।
हमारा मानना है कि जनता के बुनियादी मुद्दों पर सरकार के कामों की समीक्षा और समुचित आलोचना होती रहनी चाहिए, लेकिन अगर पूर्वाग्रह या सांप्रदायिक भावना के चलते ऐसा करेंगे, तो माहौल और खराब होगा, जैसा कि हुआ है और हो रहा है। यह एक ध्रुव-सत्य है कि अगर राजनीति होगी तो दोनों तरफ से होगी, ध्रुवीकरण होगा तो दोनों तरफ से होगा। अगर कांग्रेस या अन्य विपक्षी दल मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते रहेंगे, तो फिर बीजेपी को आप किस आधार पर हिन्दू-तुष्टीकरण की राजनीति करने से रोक पाएंगे?
हामिद अंसारी जी को यह भी बताना चाहिए था कि
(1) क्या आज बेचैनी और असुरक्षा की भावना सिर्फ़ मुसलमानों में है या हिन्दुओं में भी है?
(2) क्या आम हिन्दू या मुसलमान इतने बेचैन होते, अगर मुस्लिम तुष्टीकरण और हिन्दू तुष्टीकरण की राजनीति का ऐसा टकराव नहीं होता?
(3) देश के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पद पर रहते हुए इस राजनीतिक टकराव को टालने के लिए उन्होंने क्या पहल की? या वे महज किसी के रबड़-स्टाम्प बनकर ही कार्य करते रह गए?
(4) जब राज्यसभा टीवी को उन्होंने मोदी-विरोध का हथियार बना लिया, तब इस टकराव को वे बढ़ा रहे थे कि घटा रहे थे?
(5) उनके राष्ट्रध्वज को सलामी नहीं देने और योग दिवस के कार्यक्रमों से दूर रहने से यह टकराव बढ़ा कि घटा?
(6) उनके व्यवहार से मुसलमानों की छवि उदारवादियों जैसी बनी या कट्टरपंथियों जैसी बनी?
(7) दस साल उपराष्ट्रपति रहने के बावजूद उन्होंने मुसलमानों की बेचैनी और असुरक्षा दूर करने के लिए क्या किया, जो आज कुर्सी छोड़ते समय उन्हें उनका ख्याल सताने लगा?
बाकी सवालों के जवाब हामिद अंसारी ही दे सकते हैं, लेकिन पहले सवाल का जवाब हम उनसे अवश्य शेयर करना चाहते हैं। जवाब कड़वा है, पर सच्चा है कि बेचैनी सिर्फ़ मुसलमानों में नहीं है, हिन्दुओं में भी है और मोदी को छप्पर-फाड़ बहुमत मिलना और तीन साल बाद भी लोकप्रियता बरकरार रहना इस बेचैनी का सबसे बड़ा सबूत है। लोकतंत्र में हम समस्याओं को तब तक हल नहीं कर सकते, जब तक कि सभी पक्षों की बातें न सुनें और उन्हें समझने का प्रयास नहीं करें।
(1) आज हिन्दुओं को भी लगता है कि इस्लामिक आतंकवादी कहीं भी कभी भी बेगुनाहों पर हमला करके उनकी जान ले सकते हैं और सेकुलर लोग कहते रह जाएंगे कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। हर हमले के बाद आतंकवाद फैलाने के आरोपियों के मानवाधिकार का डंका पीटा जाएगा, किसी के एनकाउंटर को फ़र्ज़ी ठहराने की कोशिश होगी, किसी को देश का बेटा-बेटी बताया जाएगा, किसी की बरसी मनाई जाएगी, तो किसी के जनाजे में जुलूस निकाला जाएगा।
(2) हिन्दुओं के भीतर इस बात की भी बेचैनी है कि धर्म के नाम पर देश का एक विभाजन हो चुका है, इसके बावजूद अलगाववादी सोच खत्म नहीं हुई है। कश्मीर, असम, पश्चिम बंगाल इत्यादि राज्यों के जिन हिस्सों में मुसलमान बहुसंख्यक हैं, वहां हिन्दुओं के जीने के हालात बद से बदतर हैं। उतने बदतर, जितने कि हिन्दू-बहुल इलाकों में मुसलमानों के हालात न कभी हुए, न कभी हो सकते हैं।
(3) भारत में मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति हिन्दुओं की इस बेचैनी और असुरक्षा को और बढ़ाती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि अन्य धर्मों के दुनिया में अनेकों देश हैं, पर उनके लिए समूची दुनिया में यही एक देश है। अगर यहां की डेमोग्राफी बिगड़ी, तो उनकी अगली पीढ़ियों का हाल कश्मीरी पंडितों जैसा हो सकता है।
बहरहाल, अगर हामिद अंसारी इस बात की तरफ़ इशारा करना चाहते हैं कि देश के मुसलमानों में असुरक्षा और बेचैनी का आलम मोदी की वजह से है, तो मोदी को इतना ताकतवर भी उन्हीं लोगों ने बनाया है, जिन्होंने उन्हें मुस्लिम-विरोधी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और हिन्दू-हृदय-हार बना दिया। इसलिए मुझे तो लगता है कि सबसे बड़े मोदी-भक्त वे नहीं हैं, जो तीन साल से उनका गुणगान कर रहे हैं, बल्कि वे थे, जो 2002 से 2014 तक मोदी से शत्रुता निभाते दिखाई दिए।
ज़रा इस बात पर भी गौर करें कि वे मुद्दे कितने बचकाने हैं, जिनके चलते देश में बेचैनी महसूस की जा रही है-
(1) ‘वन्दे मातरम’ का मुद्दा। जबकि वे भी कट्टरपंथी हैं, जो कहते हैं कि वन्दे मातरम बोलना ही होगा और वे भी कट्टरपंथी हैं, जो कहते हैं कि किसी कीमत पर नहीं बोलेंगे, हमारा धर्म इसकी इजाज़त नहीं देता। कोई दो शब्द बोलने से न देशभक्ति साबित होती है, न धर्म ख़तरे में पड़ता है।
(2) योग का मुद्दा। योग का अंध-विरोध करने वाले भी उतने ही ग़लत हैं, जितने कि इसे अनिवार्य बनाने की वकालत करने वाले। योग स्वास्थ्य के लिए है। इसे धर्म से जोड़कर देखना मानसिक दिवालियापन है।
(3) गाय का मुद्दा। खाने की आज़ादी के नाम पर गोमांस खाने की ज़िद रखना भी उतना ही ग़लत है, जितना गोरक्षा के नाम पर किसी इंसान के साथ हिंसा करना।
(4) लव जेहाद का मुद्दा। दो बालिग लोगों को प्रेम करने या शादी करने से रोकना अगर गलत है, तो इसकी आड़ में लड़के या लड़की का धर्म-परिवर्तन कराना भी गलत है। प्रेम है, तो धर्म-परिवर्तन की ज़रूरत क्यों? अगर धर्म-परिवर्तन की ज़रूरत है, तो प्रेम का ढोंग क्यों?
(5) आतंकवाद का मुद्दा। हिंसा करने वालों के प्रति समर्थन या सहानुभूति रखना भी उतना ही गलत है, जितना कि हर मुसलमान को आतंकवादी समझ लेना।
लेकिन जब तक इस देश में दो गलत के बीच में से एक को सही ठहराने का चलन समाप्त नहीं होगा, तब तक बेचैनी और असुरक्षा का यह दौर भी ख़त्म नहीं हो सकता। आज सभी को सत्ता चाहिए। सत्य किसी को नहीं चाहिए। अगर हामिद अंसारी जैसे हमारे अभिभावक भी आधा-अधूरा-काना-कुतरा सच ही बोलेंगे, तो सोचिए कि देश किस दिशा में जाएगा!
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