ख़ुद किसी एजेंडे का हिस्सा लगता है कोबरा पोस्ट का स्टिंग ऑपरेशन
कोबरा पोस्ट का स्टिंग ऑपरेशन मैंने नहीं देखा है। यूं भी अब मैं कोई स्टिंग ऑपरेशन तब तक नहीं देखता, जब तक कि उसका रॉ फुटेज मुझे देखने को न मिले। बिना रॉ फुटेज सार्वजनिक हुए एडिटेड वीडियो वाले स्टिंग ऑपरेशनों की मेरी नज़र में विश्वसनीयता काफी कम हो गई है, अगर यह किसी अति-विश्वसनीय संस्थान द्वारा न किया गया हो और इसका मकसद संदेह से परे न हो। मैं यह तो नहीं कहना चाहता कि स्टिंग ऑपरेशन पत्रकारिता का एक गंदा काम है, क्योंकि इसके माध्यम से देश और जनता के हित में कई ज़रूरी खुलासे भी किए जा सकते हैं, लेकिन इस बात की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि जैसे न्यूज़ “पेड” हो सकता है, वैसे ही स्टिंग ऑपरेशन भी “पेड” हो सकते हैं।
यूं भी केवल स्टिंग ऑपरेशनों पर निर्भर संस्थानों का रिवेन्यू मॉडल संदेह पैदा करता है, क्योंकि यह उतना ठोस नहीं होता, जितना आम मीडिया संस्थानों का होता है। जब तक स्टिंग ऑपरेशन का कोई प्रायोजक (जो उसका ख़र्च उठाए) या कोई तय ख़रीदार (जो उसके लिए भुगतान कर सके) न हो, केवल स्टिंग ऑपरेशन करने के काम से जुड़ी संस्थाएं सर्वाइव नहीं कर सकतीं। हां, जिनके पास ठोस रिवेन्यू मॉडल आधारित अपना टीवी चैनल (या कम से कम पोर्टल या अखबार) हो, वे अधिक विश्वसनीय रूप से स्टिंग ऑपरेशन कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने के लिए पैसों और बड़े पैमाने पर इसके प्रसारण के लिए उन्हें किसी अन्य पर निर्भर नहीं रहना होता है और अक्सर इसका इस्तेमाल वे जनहित में कोई खुलासा करने, लोगों में चर्चा का विषय बनने या अपनी व्यूअरशिप बढ़ाने के लिए किया करते हैं।
जहां तक कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन का सवाल है, तो प्राप्त जानकारी के मुताबिक कई मीडिया संस्थान पैसे लेकर “हिन्दुत्व का एजेंडा” चलाने को तैयार हो गए। इससे प्रथमदृष्टया ऐसा लगता है कि इस स्टिंग ऑपरेशन के मुद्दे और इसके लिए मीडिया हाउसेज के चयन के पीछे काफी दिमाग लगाया गया है। ऐसा लगता है कि इसके ज़रिए, कुछ विशेष मीडिया संस्थानों को जान-बूझकर छोड़ते हुए, कुछ अन्य विशेष मीडिया संस्थानों के बारे में ऐसा दर्शाने की कोशिश की गई है कि वे हिन्दुत्व का एजेंडा चला रहे हैं और मौजूदा राजनीतिक माहौल में सत्ता की भक्ति में लहालोट हो गए हैं, जैसा कि मीडिया के एक धड़े पर भारत की विपक्षी पार्टियों का आरोप है।
विषय का चयन ऐसा है कि इससे न केवल मीडिया हाउसेज, बल्कि हिन्दुत्ववादी संगठन और सरकार- तीनों संदेह के घेरे में आते हैं और ऐसा प्रतीत होता है जैसे भारत में यह समय विशेष रूप से मुसलमानों के लिए बेहद बुरा है और वे चौतरफा साज़िशों और हमलों से घिरे हुए हैं। मतलब कि कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों और देश में लोकसभा चुनाव से पहले इस स्टिंग ऑपरेशन को विपक्ष की चरणबद्ध योजना का एक हिस्सा माना जा सकता है, जिसमें पूरी तरह से राजनीतिक एक आरोप को सच्चा साबित करने की कोशिश की गई है, ताकि सरकार और हिन्दुत्ववादी शक्तियों के ख़िलाफ़ विपक्ष की लामबंदी और सामाजिक ध्रुवीकरण को बल मिले।
यह सोचना पड़ेगा कि आख़िर वे कौन लोग हैं, जो येन-केन-प्रकारेण हिन्दुओं और मुसलमानों के कथित कॉन्फ्लिक्ट को चर्चा के केंद्र में बनाए रखना चाहते हैं? क्या इसके लिए अकेले बीजेपी या संघ परिवार को ही ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, जैसा कि विपक्ष का प्रोपगंडा है? या फिर ऐसा प्रोपगंडा करने वाला विपक्ष ख़ुद दोहरा खेल खेलने में जुटा हुआ है और किसी भी तरह से वह देश के राजनीतिक विमर्श को मुसलमानों, दलितों और कुछ अन्य जातियों के ध्रुवीकरण के एजेंडे से बाहर नहीं निकलने देना चाहता है? जब सरकार के चार साल पूरे हो रहे थे, तब स्टिंग ऑपरेशन करने वाले लोग यदि सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं में अनियमितताओं या भ्रष्टाचार का खुलासा करता कोई स्टिंग ऑपरेशन करते, तो वह अधिक सार्थक होता, या हिन्दुत्व एजेंडे को लेकर किया गया यह स्टिंग ऑपरेशन अधिक सार्थक है?
हालांकि, यहां यह साफ़ कर दूं कि मीडिया में भ्रष्टाचार की ख़बरों पर मैं कतई परदा नहीं डालना चाहता, क्योंकि अगर मीडिया से जुड़े तमाम लोगों ने मिलकर इसकी काट नहीं ढूंढ़ी और इस पर लगाम नहीं कसी, तो पूरी मीडिया बिरादरी की विश्वसनीयता पर खरोंच आएगी और इसके दूरगामी नुकसान होंगे। लेकिन कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन ने मीडिया में भ्रष्टाचार को बेहद एकपक्षीय तरीके से दर्शाया और इसे सांप्रदायिक रंग भी दे दिया, जबकि वास्तव में इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है, जिसमें कोबरा पोस्ट की दिलचस्पी नहीं थी। मेरी राय में, पैसे लेकर अनेक मीडिया संस्थान केवल हिन्दुत्व ही नहीं, बल्कि इस्लाम और क्रिश्चियनिटी का एजेंडा भी चला सकते हैं। आप उनके सामने पैसे और एजेंडे लेकर तो पहुंचिए।
आखिर विचारधारा के नाम पर इस देश के अनेक मीडिया हाउस पहले से ही नक्सलवादियों-माओवादियों और अलगाववादियों-आतंकवादियों तक का एजेंडा चला रहे हैं कि नहीं? कौन जानता है कि विचारधारा के नाम पर चलाए जा रहे इस एजेंडे के लिए भी कहीं-कहीं से पैसे नहीं आ रहे हैं? मैं तो काफी समय से शक ज़ाहिर करता आ रहा हूं कि रूट डायवर्ट करके काफी सारा पैसा पाकिस्तान की ख़ुफिया एजेंसी आईएसआई और अन्य भारत-विरोधी ताकतों से भी आता ही है, वरना कोई हिन्दुस्तानी बेकसूर नागरिकों के हत्यारे आतंकवादियों को हीरो क्यों बताता या उनके मानवाधिकार की चिंता में दुबला क्यों होता रहता?
पिछले साल प्रतिष्ठित समाचार चैनल “आज तक” ने तो कुछ कश्मीरी अलगाववादियों का स्टिंग ऑपरेशन करके यह स्थापित भी किया था कि उन्हें पाकिस्तान से पैसे मिल रहे हैं। ऐसे में जो मीडिया हाउसेज या पत्रकार अलगाववादियों या आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति या समर्थन का भाव रखते हैं, देश के आम लोगों के मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ना छोड़कर उनके मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ते रहते हैं और उनके एजेंडे के हिसाब से सारे विमर्श को संचालित करने की कोशिशें करते रहते हैं, वे क्या यह काम बिना पैसे के कर रहे हैं?
ये भी कौन नहीं जानता है कि कोई मीडिया हाउस क्यों कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों का एजेंडा चलाता है और कोई क्यों बीजेपी का एजेंडा चलाता है? लगभग तमाम राज्यों में सुशासन की सरकारों ने कैसे पैसे के बल पर स्थानीय मीडिया को ख़रीद रखा है या गुलाम बना रखा है या मैनेज कर रखा है, इसे कौन नहीं जानता है? इसलिए मैं यह रिपीट करना चाहता हूं कि कोबरा पोस्ट का स्टिंग ऑपरेशन सिक्के का केवल एक पहलू सामने लाता है। सिक्के के दूसरे पहलू में शामिल लोगों को उसने बख्श दिया है। इसलिए, कौन जानता है कि सिक्के का केवल एक ही पहलू सामने लाने के लिए उसे भी कहीं से सपोर्ट (जिसमें पैसा भी शामिल हो सकता है) मिला हो?
मेरी राय में कोबरा पोस्ट का स्टिंग ऑपरेशन तब और अधिक धारदार और विश्वसनीय हो जाता, जब वह केवल हिन्दुत्व का ही नहीं, बल्कि अलग-अलग एजेंडा लेकर मीडिया हाउसेज के पास पहुंचता और उन्हें एक्सपोज़ करता। यदि उसने तरह-तरह का एजेंडा लेकर मीडिया संस्थानों को बेनकाब किया होता और उसका रॉ फुटेज सार्वजनिक किया होता, तो मैं उसे देखने के लिए अवश्य समय निकालता, लेकिन एक ही एजेंडे को लेकर केवल एडिटेड फुटेज जारी करके मीडिया संस्थानों को घेरना ख़ुद उसके ऊपर किसी एजेंडे से संचालित होने का शक पैदा करता है।
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