राजनीतिक दलों ने नहीं अपनाई सच्ची धर्मनिरपेक्षता, तो हिन्दुओं में भी बढ़ सकती है कट्टरता!
अगर विपक्षी दलों के पास अच्छे विश्वसनीय नेता होते, जो जनता के बीच मोदी सरकार के कामकाज की तथ्यपरक समीक्षा कर पाते, तो आज उन्हें इतना अधिक हिन्दू-मुस्लिम, हिन्दू-मुस्लिम नहीं करना पड़ता। उनकी सारी रणनीति आज भी बस मोदी-विरोधी वोटों के ध्रुवीकरण और इस ध्रुवीकरण में मुस्लिम को केंद्र में रखकर कुछ हिन्दू जातियों के साथ वोटों का काग़ज़ी गुणा-गणित तैयार करने तक ही सीमित है।
लेकिन वे भूल रहे हैं कि देश के राजनीतिक-सामाजिक हालात तेज़ी से बदल रहे हैं। अगर विपक्षी दल अब तक मुसलमानों को बरगलाए रखने में कामयाब रहे हैं, तो अब बीजेपी के रणनीतिकार भी हिन्दुओं की उन दमित भावनाओं को बड़े पैमाने पर उभारने में सफल हुए हैं, जो वास्तव में भारत-पाक विभाजन के बाद से ही देश की बहुसंख्य आबादी के मन में धीरे-धीरे ज्वालामुखी का रूप लेती जा रही थी।
इसका मतलब यह है कि अब तक जहां केवल मुस्लिम ही ध्रुवीकृत होकर वोट डालते रहे, वहीं अब हिन्दुओं में भी बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण होने लगा है। 1989 से लेकर 2014 तक यह ध्रुवीकरण लगातार पुख्ता हुआ है और आने वाले वर्षों में अभी इसके और मज़बूत होने की संभावनाएं हैं। बीजेपी के लिए अच्छी बात यह है कि इस ध्रुवीकरण को केवल सांप्रदायिक उभार की वजह से ही नहीं, बल्कि कांग्रेस और अन्य दलों में व्याप्त भ्रष्टाचार, वंशवाद, दोमुंहापन इत्यादि के चलते भी काफी बल मिला है।
जब इस तरह की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां होती हैं, तो यह मुमकिन है कि आप एकाध चुनाव में बिहार जैसा महागठबंधन बनाकर बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण को बेअसर कर सकते हैं, लेकिन यह दीर्घकालिक समाधान नहीं है, क्योंकि बहुसंख्यक ध्रुवीकृत तो हो रहे हैं, लेकिन यह उनके ध्रुवीकरण का चरम नहीं है। विपक्ष को यह नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी अगर हिन्दुओं की बात करती है, तो हिन्दू इस देश में सिर्फ़ 35-40 प्रतिशत नहीं हैं।
जहां मुस्लिम हितों का दावा करने वाली इस देश में अनगिनत पार्टियां हैं, वहीं हिन्दू हितों की बात करने वाली बीजेपी अकेली मुख्य पार्टी है और शिवसेना जैसी कुछ अन्य क्षेत्रीय पार्टियां भी उसी के साथ हैं। यानी अगर हिन्दू भावनाओं की अनदेखी करते हुए आपने एकाध चुनाव में ग़ैर-हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण के सहारे जीत हासिल कर भी ली, तो भी यह फॉर्मूला अगले चुनावों में निस्संदेह फेल हो जाएगा, क्योंकि बचे हुए 35-40 प्रतिशत हिन्दुओं में से एक हिस्सा फिर से इस बहुसंख्यक-ध्रुवीकरण का अंग बनकर बीजेपी को और मज़बूत कर देगा, जिसे अधिसंख्य मुस्लिम अपने ख़िलाफ़ मानते हैं।
यानी मुस्लिम हितों के नाम पर हो रही समूची राजनीति ही मुस्लिम हितों के ख़िलाफ़ है, जिसे प्रायः इस देश के मुसलमान भी नहीं समझ पा रहे। ऊपर से विडम्बना यह कि जो भी लोग इस राजनीति का विरोध करते हैं, उल्टे उन्हें ही वे अपने हितों के ख़िलाफ़ और भाजपाई-संघी-हिन्दुत्ववादी इत्यादि समझने लगते हैं। राजनीति मूलतः जनता के उत्थान और उनके रोज़मर्रा के जीवन से जुड़े मुद्दों को लेकर होनी चाहिए, न कि जातियों और संप्रदायों को अपना वोट बैंक बनाए रखने और इसके लिए उनके दिलों को बांटने की साज़िश करने के लिए।
जब भी आप दो वर्गों, जातियों, समुदायों या संप्रदायों को आमने-सामने खड़ा करने की रणनीति अपनाकर राजनीति करते हैं, तो ध्रुवीकरण की प्रक्रिया भी क्रिया और प्रतिक्रिया की तरह काम करने लगती है। हालांकि यहां यह समझना भी ज़रूरी है कि हिन्दुओं में बढ़ रहा मौजूदा ध्रुवीकरण फिलहाल कट्टरता की वजह से नहीं, बल्कि क्रिया-प्रतिक्रिया, असंतोष और असुरक्षा की वजह से है, लेकिन अगर समय रहते राजनीतिक दलों ने बांटने वाली राजनीति, जिसे अक्सर तुष्टीकरण की राजनीति कहा जाता है, छोड़कर सकारात्मक राजनीति शुरू नहीं की, तो हिन्दुओं में भी इस ध्रुवीकरण के साथ-साथ कट्टरता बढ़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
और कट्टरता चाहे किसी भी जाति, धर्म, संप्रदाय की हो, वह मानवता के लिए अच्छी नहीं होती। इस देश के विपक्षी दलों और प्रायः बुद्धिजीवियों ने भी अब तक नाम-मात्र मौजूद हिन्दू कट्टरता का तो विरोध किया है, लेकिन मुसलमानों के एक तबके में आतंकवाद की हद तक पहुंच चुकी कट्टरता के मामले में चुप्पी साधे रखी है। इससे आम हिन्दुओं में भारी असंतोष है और इसी असंतोष के चलते धीरे-धीरे उनके भी कट्टर बनते जाने का ख़तरा है। इसलिए ज़रूरी है कि राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी अपनी सोच बदलें, निष्पक्ष व निरपेक्ष बनें और जितनी सख्ती से हिन्दू कट्टरता का विरोध करते हैं, उतनी ही मज़बूती से मुस्लिम कट्टरता का भी विरोध शुरू करें।
इससे हिन्दुओं की कट्टरता बढ़ने नहीं पाएगी और मुस्लिम कट्टरता का स्तर धीरे-धीरे कम होगा, जिससे वे भी लिबरल समाज का अंग बनकर मुख्यधारा में आ जाएंगे। और जब आप एक बार सच्ची धर्मनिरपेक्षता यानी पक्षपात-विहीन रवैया अपनाना शुरू कर देंगे, तो फिर आपको हिन्दू कट्टरता या मुस्लिम कट्टरता का विरोध करने की नहीं, सिर्फ़ कट्टरता का विरोध करने की ज़रूरत पड़ेगी। बल्कि फिर इस विरोध का झंडा भी आपको नहीं उठाना पड़ेगा, स्वयं समुदायों के भीतर से ही लोग इसे उठा लेंगे।
इसलिए यह हमारा फ़र्ज़ है कि हम देश और समाज को आने वाले ख़तरों से आगाह करें, निरपेक्ष भाव से हर तरह की और हर तरफ़ की कट्टरता पर चोट करें और लोगों को समझाएं कि वे सिर्फ़ हिन्दू या मुस्लिम होने के संस्कार को नहीं, बल्कि एक मानव होने के संस्कार को अपने जीवन में अपनाएं, क्योंकि इसके बिना वे अपने को चाहे हिन्दू या मुस्लिम कुछ भी कह लें, मनुष्य कहने के अधिकारी नहीं रह जाएंगे।