इनसेफलाइटिस प्रसंग: एक ‘हत्यारी सरकार’ जाती है, दूसरी ‘हत्यारी सरकार’ आती है!
यूपी के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने गोरखपुर में इनसेफलाइटिस के कहर को लेकर जो जानकारी दी है, वह ख़ौफ़नाक है।
उनके मुताबिक, “हर साल अगस्त में ज्यादा मौतें होती हैं। अगस्त के महीने में 2014 में बीआरडी के पीडियाट्रिक विंग में 567 बच्चों की मौतें हुईं। 19 बच्चे हर रोज मौत के मुंह में गए। 2015 में 668 मौतें हुईं, करीब 22 बच्चों की मौत हर दिन हुईं। 2016 में 587 बच्चों की मौत यानी 19-20 मौतें हर रोज हुई थीं।”
सोचिए अगर हर साल एक ज़िले के एक अस्पताल के अंदर एक महीने में इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की मौत होती है, तो उस पूरे इलाके में हर साल कितने बच्चे काल के गाल में समा जाते होंगे, जहां इनसेफलाइटिस का कहर बरपता है। यानी हर साल यह संख्या हज़ारों में होती होगी।
अफ़सोस की बात है कि हज़ारों बच्चों का मर जाना भी राष्ट्रीय मीडिया में जगह नहीं बना पाता। अगर इस बार भी बीच में ऑक्सीजन एंगल नहीं आता, तो शायद कहीं कोई ख़बर नहीं बनती। इसके ठीक विपरीत, गली-गली उग आए कुकुरमुत्ता नेताओं के अप्रासंगिक बयान भी मीडिया में भरपूर जगह बना लेते हैं। ऊपर से माहौल ऐसा बना दिया जाता है कि हम जैसे लोगों के लिए भी उनपर टिप्पणी करना मजबूरी हो जाती है।
यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें लगता है कि धीरे-धीरे मेरा भारत मरता जा रहा है। मेरे भारत की आत्मा मरती जा रही है। जो देश अपने बच्चों के प्रति संवेदनशील न हो, उस देश के भविष्य के बारे में क्या कहा जाए? गरीबों की राजनीति करते-करते कितने लोग सियासत की सीढ़ियां चढ़ गए, अमीरी की पराकाष्ठा पार कर गए, लेकिन ग़रीबों के बच्चों की फिक्र किसी को नहीं।
आज कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी के लोग बीजेपी सरकार को “हत्यारी सरकार” कह रहे हैं। अगर उन पार्टियों में से किसी की सरकार होती, तो बीजेपी के लोग भी उसे “हत्यारी सरकार” कहते। कुल मिलाकर, ख़ुद इन नेताओं की भाषा में भी बात करें, तो देश की जनता को “हत्यारी सरकारों के जाल” से मुक्ति नहीं है। एक “हत्यारी सरकार” जाती है, दूसरी “हत्यारी सरकार” आती है।
एक अपराधी, एक आतंकवादी हत्या करे, तो उसके लिए सज़ा तय है। फांसी तक हो सकती है। लेकिन कोई सरकार या प्रशासन हत्या करे, तो उसके लिए कहीं कोई सज़ा नहीं है। सिर्फ़ जांच का ढोंग है। लेकिन जांच में क्या निकलता है, किसे सज़ा मिलती है, कितनी सज़ा मिलती है, यह सबको मालूम है। मरने वाले मर जाते हैं। अपराध करने वाले चैन से जीते रहते हैं।
एक पत्रकार होने के नाते हमें पता है कि आज हमारी सरकारों या राजनीतिक दलों में बैठे नेताओं में बस इतनी संवेदना रह गई है कि एक बढ़िया बयान बन जाए और वह बयान अखबारों में अच्छे से छप जाए, टीवी चैनलों पर धुआंधार चल जाए। अपनी प्रतिक्रियाओं में कभी गुस्सा, कभी दुख, तो कभी आंसू तक लाकर ये पूछते हैं- “भाई साहब, कैसा रहा?” यानी सब नाटक है। यानी सरकारों और राजनीतिक दलों से बेहतर नाटक मंडलियां दुनिया में कोई अन्य नहीं।
गोरखपुर में इनसेफलाइटिस कई साल, कई दशक से है। बिहार के अनेक ज़िलों में भी सालों से इनसेफलाइटिस का प्रकोप फैलता रहा है। लेकिन हम नहीं जानते कि हमारी नाटक मंडली सरकारें अगले 10 या 20 साल में भी इसे ख़त्म कर सकती हैं या नहीं। वैसे अगर ये बीमारी ख़त्म हो भी जाएगी, तो ग़रीबों के लिए कोई नई बीमारी आ जाएगी, क्योंकि ग़रीबी अपने आप में सबसे बड़ी बीमारी है। इनसेफलाइटिस जैसे बीमारियां तो इस बड़ी बीमारी के छोटे-छोटे बच्चे मात्र हैं, जो ग़रीबों के बच्चों पर अपना जुल्म ढाकर मज़े लेते रहते हैं!
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