कविता: राहुल बाबा फिर विदेश चले गए हैं!

अभिरंजन कुमार जाने-माने पत्रकार, कवि और मानवतावादी चिंतक हैं।

पिछले साल की बात है। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और संजय गांधी की कोटरी का अहम सदस्य रहे एक पुराने कांग्रेस नेता से बात हो रही थी।

मैंने कहा- “राहुल गांधी सियासत में सीरियस ही नहीं हैं।”

उन्होंने कहा- “ऐसा आप किस आधार पर कह सकते हैं? वे काफी मेहनत कर रहे हैं।”

मैंने कहा- “सिर्फ़ एक उदाहरण। एन मौके पर वे रहस्यमय तरीके से विदेश चले जाते हैं।”

उन्होंने कहा- “ऐसा एक-दो बार ज़रूर हुआ है, पर आगे नहीं होगा।”

मैंने कहा- “देखते हैं।”

मज़े की बात यह है कि राहुल बाबा एक बार फिर विदेश में हैं। ऐसे समय में, जब देश में राष्ट्रपति चुनाव का माहौल गर्म है, कांग्रेस और विपक्ष को उनकी ज़रूरत है, वे नानीघर इटली में छुट्टियां मना रहे हैं।

इससे पहले, इसी साल की शुरुआत में जब यूपी समेत पांच राज्यों में चुनाव की तारीखों का एलान हो चुका था और समाजवादी पार्टी परिवार में घमासान मचा हुआ था, तब भी राहुल बाबा विदेश में नया साल मना रहे थे।

राहुल बाबा की ख़ासियत ही यही है कि वे किसानों, कुलियों, मनरेगा मज़दूरों, दलितों, मुसलमानों को छोड़कर ऐन वक्त पर विदेश चले जाते हैं। पढ़िए आज से ठीक एक साल पहले 20 जून 2016 को लिखी मेरी यह कविता, जो फिर प्रासंगिक हो गई है-

 
“राहुल बाबा फिर विदेश चले गए हैं
किस देश गए हैं, बताकर नहीं गए, वरना ज़रूर बताता
उनकी ग़ैर-मौजूदगी में बड़ी अकेली पड़ जाती हैं उनकी माता!
 
कितने दिन के लिए गए हैं, यह भी तो उन्होंने बताया नहीं
क्या करने गए हैं, इस बारे में भी कुछ जताया नहीं
जून की इन सुलगती गर्मियों में पार्टी के लोग हो गए बिना छाता!
 
मुझे चिंता हो रही है कांग्रेस की, जिसे सर्जरी की ज़रूरत है
और सर्जरी की डेट टलती ही जा रही है
130 साल पुरानी काया अब गलती ही जा रही है
पर जो सर्जन है, वही फिर रहा है क्यों छिपता-छिपाता?
 
राहुल बाबा का जी अगर है ज़िम्मेदारी से घबराता
तो प्रियंका बेबी को ही हम बुला लेते
उनके मैजिक की माया में साल दो साल तो ख़ुद को भुला लेते
पर इस अनिश्चय की स्थिति में तो हमें कुछ भी नहीं है बुझाता!
 
दिग्गी से पिग्गी से, मणि से शनि से भी तो काम नहीं चलता
क्या करें, कांग्रेस में गांधी-नेहरू के सिवा कोई नाम नहीं चलता
ये कैसे कठिन समय में हमें डाल दिया, हे दाता!
 
पहले वाले दिन कितने अच्छे थे।
एक मम्मी थी और हम ढेर सारे बच्चे थे।
न कोई बही थी, न था कोई खाता।
जो जी में आता, वही था खा जाता।”
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