क्या सीआईए और फोर्ड फाउंडेशन ने हैक कर रखा है केजरीवाल को?
लोकतंत्र के कुछ कथित पहरुओं के दो परस्पर विरोधी बयान सुनिए-
- ईवीएम में गड़बड़ी संभव है, क्योंकि दुनिया में कोई मशीन ऐसी नहीं, जिसमें गड़बड़ी करना संभव न हो।
- दुनिया के हर इंसान में गड़बड़ी संभव है, लेकिन अरविंद केजरीवाल में संभव नहीं। वे अपवाद हैं। हर सवाल से परे हैं। ईश्वर, अल्लाह, जीसस सबसे ऊपर हैं।
लोकतंत्र के ये कथित पहरुए ईवीएम के प्रति संदेह का वातावरण बनाने में तो पूरी सक्रियता से जुटे हैं, लेकिन एक मुख्यमंत्री पर उसके ही मंत्री द्वारा लगाए गए आरोपों पर उससे सफाई मांगने तक की ज़रूरत नहीं समझते। माता सीता और सत्यवादी हरिश्चंद्र को भी विभिन्न परीक्षाओं से गुज़रना पड़ा था, लेकिन लगता है अरविंद केजरीवाल उन दोनों से भी अधिक पवित्र हैं, जिन्हें किसी सत्यापन की ज़रूरत नहीं।
लेकिन लोकतंत्र के इस महान रक्षक के अपने ही चेले कपिल मिश्रा ने इन्हें बुरी तरह एक्सपोज़ कर दिया है। साबित कर दिया है कि इनमें आरोप लगाने की ढिठाई तो है, लेकिन आरोपों का जवाब देने का पुरुषार्थ नहीं। कपिल मिश्रा तो पांच नेताओं के विदेश दौरों के डीटेल्स मांग रहे हैं, लेकिन स्वयं अरविंद केजरीवाल के फोर्ड फाउंडेशन और सीआईए लिंक के बारे में आज तक कोई पुख्ता स्पष्टीकरण नहीं आया है।
क्या सीआईए और फोर्ड फाउंडेशन ने हैक कर रखा है केजरीवाल को?
कई लोग कहते हैं कि अमेरिका में सीआईए ने उन्हें ट्रेनिंग देकर रेमॉन मैगसेसे पुरस्कार दिलवाया और फोर्ड फाउंडेशन से अनवरत् फंडिंग दिलवाई, जिसके बाद ही उनका एनजीओ खड़ा हो पाया, और पहले आरटीआई कार्यकर्ता के तौर पर और फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नायक के तौर पर उनकी छवि गढ़ने का खेल शुरू हुआ।
हालांकि व्यक्तिगत तौर पर मैं ऐसे किसी आरोप की पुष्टि नहीं कर सकता, लेकिन अगर कुछ लोगों के मन में इस बात को लेकर संदेह है, तो वह संदेह भी दूर किया जाना चाहिए! या सिर्फ़ ईवीएम के प्रति संदेह ही दूर होना चाहिए?
देखा जाए, तो अरविंद केजरीवाल की समूची राजनीति भारतीय लोकतंत्र, व्यवस्था और चुनाव-प्रक्रिया के ख़िलाफ़ जनता में निराशा, अविश्वास और गुस्सा भड़काने पर आधारित है। यह सही है कि देश की राजनीति में कई तरह की विसंगतियां हैं, लेकिन क्या इन विसंगतियों को मुद्दा बनाकर कुछ विदेशी ताकतों ने देश को अस्थिर करने की साज़िश के तहत अरविंद केजरीवाल को गढ़ा और बढ़ावा दिया?
अरविंद केजरीवाल स्वयं भी ख़ुद को अराजकतावादी कहते हैं और प्रमुख नक्सली नेताओं से उनके मज़बूत संबंध भी किसी से छिपे नहीं हैं। आख़िर दिल्ली का मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी ये राजपथ पर गणतंत्र दिवस की परेड बाधित करने की पूरी तैयारी तो कर ही चुके थे। यह कोई छोटी घटना नहीं थी, जिसे हल्के में समझा जाए, क्योंकि 15 अगस्त और 26 जनवरी के कार्यक्रम बाधित करने का ख्याल आतंकवादियों, नक्सलियों या अन्य तरह के चरमपंथियों को छोड़कर किसी अन्य भारतीय के मन में आ ही नहीं सकता।
गंदे चंदे के धंधे में केजरीवाल शुरू से ही शामिल!
कपिल मिश्रा के आरोपों को अगर एक किनारे भी कर दें, तो अरविंद केजरीवाल का जो मुख्य आवरण है- ईमानदारी का… वह भी कब का तार-तार हो चुका है। गंदे चंदे के धंधे में ये एनजीओ चलाने के समय से ही लिप्त हैं, और समय-समय पर इसके पुख्ता सबूत भी मिलते रहे हैं, लेकिन इनकी “हुआ-हुआ टोली” के डर से लोग अब तक इन्हें रेखांकित करने से घबराते रहे हैं। सच्चाई यह है कि
- केजरीवाल ने अन्ना आंदोलन के चंदे का हिसाब स्वयं अन्ना तक को नहीं दिया, जबकि वे बार-बार इसके लिए गुहार लगाते रह गए।
- अन्ना हजारे ने एसएमएस कार्ड के नाम पर भी अरविंद केजरीवाल की करोड़ों की धोखाधड़ी का मामला उठाया था। इसका भी संतोषजनक जवाब आज तक नहीं मिला है।
- आयकर विभाग ने चंदे में फ़र्ज़ीवाड़े के एक मामले की जांच में आम आदमी पार्टी को 50-50 लाख के चार चेकों के ज़रिए मिले पैसे को चंदा मानने से इनकार कर दिया है, लेकिन आम आदमी पार्टी आज तक यह बताने से कतरा रही है कि उसे यह कथित चंदा किसने दिया है।
- जब केजरीवाल अपनी पार्टी की वेबसाइट पर चंदे का ब्योरा दिखा रहे थे, तब भी कैश में बेनामी चंदा लेने से उन्हें परहेज नहीं था, जिसे अलग-अलग मदों में एडजस्ट किया जाता था। कई स्टिंग ऑपरेशनों से यह बात स्पष्ट हो चुकी है।
- अब जबकि केजरीवाल ने पार्टी की वेबसाइट से चंदे का ब्योरा हटा लिया है, तब तो बेनामी चंदे का खेल धड़ल्ले से चल ही रहा है। कपिल मिश्रा के कई आरोपों में से कुछ इस तरफ़ खुलकर इशारा कर रहे हैं।
सवाल उठाने का हक़ सिर्फ़ उसे, जो सवालों के जवाब भी दे!
भारतीय लोकतंत्र ने हर व्यक्ति को सवाल उठाने का हक दिया है, लेकिन विश्वसनीयता सिर्फ़ उसके उठाए सवालों की ही हो सकती है, जो अपने ऊपर उठ रहे सवालों के जवाब देने का भी पुरुषार्थ दिखाए। इसलिए, केजरीवाल जब तक अपने ऊपर उठ रहे सवालों का समुचित जवाब नहीं देते, तब तक उनके उठाए किसी सवाल का कोई मतलब नहीं।
ईवीएम का मुद्दा भी ऐसा ही है, जो अपने चेहरे से उघरती परत के बीच जनता की आंखों में धूल झोंकने का प्रयास ही अधिक लग रहा है। हम समझते हैं कि चुनाव आयोग इस बारे में फैलाए जा रहे भ्रम से निपटने के लिए कारगर कदम उठाएगा।