पटना, पिटना और मीडिया का चीरहरण!
हम वायरल वीडियो के युग में जी रहे हैं। आप कुछ भी करते हैं, उसका वीडियो यत्र तत्र और सर्वत्र फ़ैल जाता है। आप बस एक मूक दर्शक भर बनकर रह जाते हैं। इन वीडियोज़ के पीछे कोई तर्क नहीं होता। इन वीडियोज़ में आपको अपना पक्ष रखने का मौका नहीं मिलता। वायरल वीडियो के सच या झूठ की जब आप पड़ताल करने की स्थिति में होते हैं, आप दुनिया भर में मशहूर या बदनाम हो चुके होते हैं।
बीते बुधवार की ही बात है। स्थान- बिहार की राजधानी पटना। एक टेलीविज़न पत्रकार को तकरीबन दर्जन भर सुरक्षाकर्मी सबक सिखाने के अंदाज़ में दबोचे हुए नज़र आ रहे हैं। घटना बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के सामने घटित होती है। इस वाकये को देख ऐसा लगता है जैसे कि द्वापर युग में द्रोपदी का चीरहरण हो रहा हो। पत्रकार की शर्ट, कॉलर, कैमरा सब कुछ दांव पर है। सुरक्षाकर्मी अपने मालिक के सामने अपनी स्वामी-भक्ति दिखाने का मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते।
यह घटना उस समय घटित हुई, जब सभी पत्रकार लालू पुत्र और बिहार के डिप्टी चीफ मिनिस्टर तेजस्वी यादव से सवाल पूछने के लिए अति आतुर थे। मीडिया के लिए यह जानना बहुत ज़रूरी था कि कैबिनेट मीटिंग का एजेंडा क्या था, इसके लिए तेजस्वी से बेहतर और कौन हो सकता था? उस वक़्त शायद कोई और नहीं। ज़ाहिर है, पिछले कुछ सालों में टीवी और डिजिटल मीडिया के आगमन के बाद खबर कवर कर रहे पत्रकारों, कैमरामेनों और फोटोग्राफ़रों की संख्या में बेहतहाशा वृद्धि हुई है। इसके पीछे मीडिया हाउसेज के बीच पनप रही गलाकाट प्रतियोगिता भी है। इसी आपाधापी में तेजस्वी यादव के सुरक्षाकर्मी ने अपना आपा खोया।
तेजस्वी यादव इन दिनों सीबीआई के राडार पर हैं, उनसे जमीन घोटाले में पूछताछ चल रही है। तेजस्वी ही क्यों, उनका पूरा परिवार ही सीबीआई और ईडी के बुने हुए मकड़जाल में फंसा हुआ है। ऐसे वक़्त में लालू यादव परिवार का ध्यान केस की मेरिट पर होना चाहिए था। लालू प्रसाद यादव परिवार सालों तक मीडिया के पसंदीदा एक्टर रहे हैं। उन्हें पता रहता था कि मीडिया को किस तरह के साउंड बाइट्स चाहिए। लालू के सामने जब पूरा स्टेज सेट होता है तो इंटरव्यू को एक तरफ से वही संचालित करते हैं। सख्त और गंभीर सवालों को लालू मसखरी के अंदाज़ में उड़ाते देखे जाते रहे हैं। वह जितना बोलना चाहते हैं उतना ही बोलते है और गंभीर से गंभीर सवालों को मजाक-मजाक में टाल जाते हैं। आज लालू से मीडिया चुभने वाले सवाल पूछ रहा है।
लालू ही नहीं, तमाम नेताओं के साथ यही बीमारी है, जब तक आप नेताओं से उनकी पसंद के सवाल पूछते हैं, उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती, लेकिन जैसे ही मीडिया उनकी पसंद के सवाल पूछना बंद कर देता है, सारा खेल बिगड़ जाता है। मीडिया और नेताओं के रिश्ते इन दिनों बदल गए हैं। नेता अब मीडिया को मैनेज करने लगा है। नेता और मालिकों के बीच पत्रकार के लिए जगह नहीं बचती है, लेकिन सच्चाई यह है कि घोड़ा अगर घास से दोस्ती कर ले, तो पेट कैसे भरे?
गाहे-बगाहे नेता और मीडिया के समीकरण बदल भी जाते हैं। बिहार ही नहीं, तकरीबन सभी राज्यों में अख़बारों को सरकारी विज्ञापन तो मिलता ही है, लेकिन मीडिया की जो नई पौध आई है, उसकी निर्भरता सरकारी विज्ञापनों पर कम हुई है। उसकी ताक़त है तात्कालिकता और उसकी पहुँच। पहले टीवी और अब डिजिटल मीडिया ने नेताओं और मीडिया की सहजीविता, सहज संबंध पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है।
लालू ने जिस मीडिया को पिछले दो दशकों तक सहजता के साथ संभाला, तेजस्वी जैसे नए नेता पुत्रों को इन समीकरणों को समझना पड़ेगा। मीडिया दोधारी तलवार है, यह आपकी तस्वीर को बनाती है, तो तस्वीर को खंडित भी करती है। मीडिया में वही बिकता है जो दिखता है। इस लिहाज से, तेजस्वी के सुरक्षाकर्मियों को तेज़ दिखाने से बचना चाहिए था।
अब एक तरफ सीबीआई जांच, दूसरी तरफ़ कुर्सी जाने की आंच और तीसरी तरफ़ मीडिया की टेढ़ी भृकुटि- कहीं गंभीर नेता बनने से पहले ही कांच की तरह टूटकर बिखर न जाएं तेजस्वी। पटना में पत्रकार का पिटना कहीं उन्हें भारी न पड़ जाए।
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