सोचो इंडिया सोचो: है अंधेरी रात, पर दीपक जलाना कब मना है?
मनुष्य ने समाज का निर्माण एक ऐसी संस्था के रूप में किया था, जहां वह ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर सके, एक दूसरे के सहयोग से अपना आर्थिक एवं सामाजिक विकास कर सके। पहले लोग सामाजिक समन्वय के सिद्धांत पर काम करते थे। सार्वजनिक हितों की रक्षा के लिए व्यक्तिगत हितों की कुर्बानी दे देते थे, लेकिन कथित आधुनिक सोच एवं उपभोक्तावादी संस्कृति ने इंसान को व्यक्तिवादी और अवसरवादी बना दिया है। स्वार्थ के लिए लोग सामाजिक एवं राष्ट्रीय हितों की बलि दे रहे हैं।
हम पर भोगवाद इस कदर हावी है कि स्वार्थ में अंधे होकर हम अपने बूढ़े माता-पिता एवं कुटुंब संबंधियों की भी परवाह नहीं करते। हमारा सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना बिखरता जा रहा है और इस बिखराव का मूल्य हम अनेक सामाजिक समस्याओं के रूप में चुका रहे हैं। सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार, आधारभूत संरचनाओं की कमी (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, जल प्रबंधन, जल की निकासी), महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते सामाजिक एवं यौन अपराध, वृद्धों, युवाओं और हमारे बच्चों का अनिश्चित एवं असुरक्षित भविष्य- ये सभी समस्याएं हमारे कमज़ोर होते सामाजिक ढांचे का ही परिणाम हैं।
मिलावटखोरी, मुनाफ़ाखोरी एवं कालाबाज़ारी हदें पार कर चुकी है। शिक्षा एवं स्वास्थ्य बदहाल स्थिति में है। सरकार सामाजिक विकास के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाती है, लेकिन ज़रूरतमंदों के पास पहुंचने से पहले ही ये बिचौलियों के हाथों में दम तोड़ देती हैं। जनता के रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं। अपराधी थाना, गवाह, कोर्ट सभी को मैनेज कर लेते हैं। पीड़ित व्यक्ति भागते-भागते थक जाता है, पर न्याय नसीब नहीं होता। एक समय था, जब अपराधियों को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था, लेकिन आज वे हमारे माननीय बन बैठे हैं। यह सामाजिक बिखराव का ही परिणाम है कि मुट्ठी भर लोग समाज और राष्ट्र की शांति एवं समृद्धि के लिए ख़तरा बन जाते हैं।
ज़रा सोचिए… क्या हम आज आज़ादी की उन्मुक्त हवा में सांस ले रहे होते, यदि भारत माता के वे वीर सपूत, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपनी जानें कुर्बान कर दीं, भी हम लोगों की तरह व्यक्तिवादी होते? आज की सामाजिक स्थिति ऐसी है, कि अपराधी सरेआम जघन्य वारदात को अंजाम देते हैं और लोग तमाशबीन बने देखते रहते हैं। जब कोर्ट में गवाही की ज़रूरत पड़ती है, तो लोग सच के लिए सामने आने से कतराते हैं। क्या हमारा जमीर इतना मर चुका है?
सरकारी तंत्र में जिन्हें आम जन की सेवा के लिए रखा गया है, वे बेशर्मी से खुलेआम रिश्वत मांगते हैं, मानो उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। हम इतने कमज़ोर हो चुके हैं कि इस रिश्वतखोरी के विरुद्ध आवाज़ तक नहीं उठा पाते। सभी यही सोचते हैं कि अकेले मेरे ईमानदार होने से क्या होगा? लेकिन वे भूल जाते हैं कि हम बदलेंगे, तभी युग बदलेगा। सामाजिक एकता के अभाव के चलते स्थिति ऐसी है कि जिसपर विपत्ति आए, वह ख़ुद झेले। मददगार तो छोड़िए, सहानुभूति जताने वाले भी कम ही मिलते हैं।
सामाज-कल्याण के लिए बनी संस्थाएं एवं कार्यक्रम मुट्ठी भर लोगों के लिए लूट का अड्डा बन चुके हैं। मनरेगा, पैक्स, मिड डे मील आदि सभी कार्यक्रम भले ही गरीबों के कल्याण के लिए बनाए गए हैं, लेकिन इनसे गरीबों की आर्थिक स्थिति में तो सुधार नहीं हुआ, उल्टे इन कार्यक्रमों को चलाने वाले अवश्य ही धनकुबेर बन गए हैं।
अधिकांश एनजीओ भी सरकारी धन की लूट का बड़ा जरिया बन चुके हैं। देश में लाखों NGO रजिस्टर्ड हैं, लेकिन कुछ को छोड़, बाकी सभी जनता जनार्दन की सेवा के लिए नहीं, अपनी जेबें गर्म करने के लिए बनी हैं। हाल ही में, केंद्र सरकार ने जब इनकी जांच कराई, तो आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए। हजारों NGO जिस पते पर रजिस्टर्ड हैं, वहां उनका कोई पता-ठिकाना ही नहीं। कई एनजीओ ने वर्षों से अपने आय-व्यय का ब्यौरा नहीं दिया। हालांकि सरकार ने इनमें कई की मान्यता रद्द करने हेतु कदम उठाए हैं, लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है कि कुछ प्रभावशाली और धूर्त लोग सरकारी धन, जो कि देश की जनता का ही धन है, उसे लूट रहे हैं? क्या ऐसे लोगों के विरुद्ध आवाज बुलंद नहीं की जानी चाहिए?
सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में सुधार की ज़िम्मेदारी स़िर्फ़ सरकार या किसी संस्था की नहीं, वरन आम जन की भी है। हम अपनी ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकतों से सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन को किस कदर नुकसान पहुंचा रहे हैं, इस पर कभी एकांत में बैठकर विचार करें। पानी-बिजली की बर्बादी, सार्वजनिक जगहों पर गंदगी फैलाना, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना इत्यादि कुछ उदाहरण मात्र हैं। आज अमेरिका, यूरोपीय देश और जापान समृद्ध राष्ट्रों की श्रेणी में खड़े हैं, तो इसकी मुख्य वजह उस देश के नागरिक हैं, जो अपनी मातृभूमि के लिए जीते हैं, अपने निजी स्वार्थों के लिए नहीं।
आज हिंदुस्तान के किसी घर का बेटा अमेरिका में नौकरी करता है, तो परिवार वालों की छाती गर्व से फूल जाती है। क्या कमी है हमारे देश में? क्या यह अमेरिका से ज़्यादा समृद्ध नहीं बन सकता है? हमारे पास प्रचुर प्राकृतिक संसाधन, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, युवा शक्ति और कुशल श्रमिक सब कुछ हैं। बस कमी है तो एक अच्छी सोच की, जो किसी व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के जीवन को सही दिशा देती है और उसे महान बनाती है। हरिवंश राय बच्चन की यह युक्ति आज प्रासंगिक है- “है अंधेरी रात, पर दीपक जलाना कब मना है?”