मुस्लिम-विरोधी संगठन है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, बीजेपी को पहुंचा रहा फ़ायदा!
मेरा मानना है कि अयोध्या विवाद का हल अगर दोनों समुदायों के मेल-जोल से निकल आए, तो इससे अच्छी बात कुछ भी नहीं हो सकती। कोर्ट के फैसले से कोई एक पक्ष तो मायूस अवश्य होगा, लेकिन दोनों पक्ष अगर मिल-बैठकर रास्ता निकाल लें, तो इससे देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र बढ़ेगा और भेदभाव की राजनीति को झटका लगेगा।
लेकिन दुर्भाग्य से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सौहार्द्र कायम करने की राह में रोड़े अटका रहा है। साफ़ है कि उसे टकराव चाहिए, सुलह नहीं चाहिए। जब वह सुप्रीम कोर्ट की इस भावना का ही समर्थन नहीं कर पा रहा कि मामले को बातचीत से सुलझा लिया जाए, तो अगर फैसला उसके विरुद्ध आ गया, तो इसे वह कितना पचा पाएगा, सोचने की बात है।
यह भी सोचने की बात है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड टकराव के जिस रास्ते पर बढ़ना चाहता है, उससे किसे फायदा होने वाला है? इसीलिए, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड वास्तव में मुझे एक मुस्लिम-विरोधी संगठन लगता है, जो बीजेपी का फायदा पहुंचा रहा है।
बीजेपी को फ़ायदा पहुंचाने में जुटा है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड!
मैं आपको दावे के साथ बता सकता हूं कि वह हमेशा ऐसे स्टैंड लेता है, जिससे बीजेपी को फायदा पहुंचता है। तीन तलाक मुद्दे पर भी उसने बीजेपी को फायदा पहुंचाया। उसने यह साबित किया कि मुस्लिम संगठन अपनी महिलाओं को उनका वाजिब हक देने को तैयार नहीं हैं, जबकि हिन्दूवादी बीजेपी उनकी गुहार सुनकर सामने आई। अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने ही तीन तलाक के ख़िलाफ़ स्टैंड ले लिया होता, तो बीजेपी इसका लाभ नहीं उठा पाती।
ठीक इसी तरह, अयोध्या विवाद में भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बीजेपी को ही फायदा पहुंचा रहा है, क्योंकि राजनीति की सामान्य समझ रखने वाला व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि इस मुद्दे पर जितनी जड़ता और कट्टरता दिखाई जाएगी, बीजेपी की राजनीति को उतनी ही शह मिलेगी और 2019 के चुनाव में भी उसे ही फायदा मिलेगा।
पर्सनल लॉ बोर्ड की नासमझी और कट्टरता का आलम यह है कि उसने मौलाना सलमान नदवी को बोर्ड से बाहर कर दिया है, जो कि इस विवाद के सौहार्द्रपूर्ण हल के लिए कोई फॉर्मूला लेकर आए थे। इस घटना से यह भी ज़ाहिर है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड लोकतांत्रिक मूल्यों में यकीन नहीं रखता और असहमति का कोई भी स्वर उसे स्वीकार नहीं है।
जड़ता से भरा है पर्सनल लॉ बोर्ड का एक-एक बयान!
अयोध्या विवाद पर बोर्ड के बयान का एक-एक वाक्य जड़ता और कट्टरता से भरा हुआ है। ख़बरों के मुताबिक, बोर्ड ने कहा है-
1. “बाबरी मस्जिद इस्लाम का महत्वपूर्ण हिस्सा है।”
2. “मुस्लिम मस्जिद को कभी छोड़ नहीं सकते, न ही मस्जिद के लिए ज़मीन को बदल सकते हैं और न ही मस्जिद की ज़मीन किसी को तोहफे में दे सकते हैं।”
3. “बाबरी मस्जिद एक मस्जिद है और कयामत तक मस्जिद रहेगी।”
बोर्ड के बयान नंबर एक की बात करें तो हिन्दू तो छोड़िए, शायद ही कोई समझदार मुसलमान भी उससे सहमत होगा। बोर्ड जिस तरह से तीन तलाक को इस्लाम का महत्वपूर्ण हिस्सा बता रहा था, उसी तरह वह अब बाबरी ढांचे को भी इस्लाम का महत्वपूर्ण हिस्सा बताने पर आमादा है, जबकि अनेक मुस्लिम ऐसे हैं, जो बाबरी ढांचे को मस्जिद नहीं मानते।
बोर्ड के बयान नंबर दो से भी उसकी अनुदारता ही झलकती है, जो भारत जैसे उदारवादी देश के माहौल के बिल्कुल विपरीत है। “मुस्लिम मस्जिद को कभी छोड़ नहीं सकते, न ही मस्जिद के लिए ज़मीन को बदल सकते हैं और न ही मस्जिद की ज़मीन किसी को तोहफे में दे सकते हैं।” ऐसा कहकर उसने समूचे मुस्लिम समुुदाय को अनुदारवादी, हठधर्मी और कट्टर साबित करने की कोशिश की है।
बोर्ड के बयान नंबर तीन से ऐसा लगता है कि इस विवाद को वह एक युद्ध की तरह ले रहा है और 500 साल बाद भी बाबर-औरंगज़ेब जैसी सोच से बाहर नहीं निकला है, वरना “कयामत तक” जैसी शब्दावली के प्रयोग का क्या औचित्य है? एक ऐसा मु्द्दा, जो अलग-अलग समुदायों के 130 करोड़ लोगों के बीच आपसी भाईचारे की मिसाल बन सकता है, अगर उसे भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड एक युद्ध की तरह ही लड़ना चाहता है, तो इससे देश में मुसलमानों के प्रति प्रेम और विश्वास घटेगा या बढ़ेगा- उसे यह भी सोचना चाहिए।
बंद हो पागलपन का खेल!
बाबा कबीरदास, जिन्हें हिन्दू और मुसलमान दोनों अदब की निगाह से देखते थे, उन्होंने एक बड़े पते की बात कही थी-
“मंदिर तोड़ो, मस्जिद तोड़ो, यह सब खेल मज़ा का है।
पर किसी का दिल मत तोड़ो, यह तो वास ख़ुदा का है।”
वे बाबर और मीर बाकी भी पागल थे, जिन्होंने हिन्दू मंदिर को तोड़कर 1527 में एक इमारत बनवाई और उसे मस्जिद का नाम देकर इस्लाम को कलंकित कर दिया। उस वक्त उनकी छाती अवश्य फूली होगी, लेकिन उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि उनकी यह करतूत इतिहास में इस्लाम के माथे पर कलंक के रूप में चस्पा हो जाएगी।
इसी तरह, वे लोग भी पागल थे, जिन्होंने उन पागलों के पागलपन की निशानी को मस्जिद समझकर 1992 में तोड़ दिया और हिन्दुत्व को कलंकित किया। उस वक्त उनकी भी छाती फूली थी, लेकिन उन्हें भी पता नहीं था कि उनकी इस करतूत से भारत को दुनिया भर में शर्मिंदा होना पड़ेगा।
हमारा कहना है कि अब तो पागलपन का यह खेल बंद होना चाहिए और दिलों को जोड़ने का काम शुरू होना चाहिए। 1947 में धर्म के आधार पर भारत-पाक बंटवारे के बाद से हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो एक अमिट खाई-सी बनी हुई है, उस खाई को भरने में अयोध्या विवाद के सौहार्द्रपूर्ण हल से काफी मदद मिल सकती है।
कयामत तक लड़ना है, तो आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ें!
इसलिए, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से हमारी अपील है कि
(1) बीजेपी के एजेंट की तरह काम करना बंद करें।
(2) तीन तलाक जैसी अमानवीय और स्त्री-विरोधी परंपरा और पागलपन की प्रतीक इमारत को इस्लाम का महत्वपूर्ण अंग बताने के सनकीपने से बाहर निकलें।
(3) अगर “कयामत तक” कोई लड़ाई ही लड़नी है, तो आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ें और भटके हुए नौजवानों को यह बताएं कि आतंकवाद इस्लाम का अंग नहीं है।
बीजेपी-आरएसएस से लड़ने से पहले अपने भीतर के दुश्मनों से लड़ें मुसलमान!
अंत में, काफी सोच-समझकर यह कह रहा हूं कि भारत में मुसलमानों को असली ख़तरा हिन्दुओं से नहीं, बल्कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे दकियानूसी कट्टरपंथी संगठनों से है, जो न सिर्फ़ उन्हें चौदहवीं शताब्दी में ढकेले रखना चाहता है, बल्कि कुछ राजनीतिक संगठनों को लाभ पहुंचाने के लिए उन्हें बहुसंख्य हिन्दुओं के ख़िलाफ़ युद्धरत भी दिखाना चाहता है।
इसलिए, बेहतर होगा कि भारत के मुसलमान एक बार पूरी ताकत से अपने भीतर के ऐसे संगठनों के ख़िलाफ़ ही लड़ लें। फिर उन्हें बीजेपी-आरएसएस से लड़ने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी।
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Ha humne mouqa diya aap ko k mandir tha to proof karalo court me aur banalo 30 saal se proof nahi kara pare to ab tamashe karre agar hum nahi ladte nahi hum kisi mandir ko tode aur nahi hum tod na chahte hi
aap kahte hi AIMPLB rss ko faida pahunchara
aur dusri taraf rizwi aur nadwi aap ko muslim lage
masjid ki baat karne wala rss se mila hua
aur mandir ki baaat karne wala muslim
waaaaaaaaaaah waaaaaaah