मोदी जी, सपनों को मत तोड़िएगा… सपने टूट जाते हैं, तो मूर्तियां भी टूट जाती हैं!
सुना है कि आरएसएस ने मोदी सरकार को बताया है कि लोगों में निराशा बढ़ती जा रही है। बहसलाइव.कॉम ने आज से ठीक एक महीना पहले 16 अगस्त को ही इस बारे में एलार्म बजा दिया था, जिसे आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं। वजहें कई हैं, जिन्हें सरकार में बैठे नीति-निर्माता शायद ही समझ पाएं, क्योंकि सत्ता समझने की शक्ति कम कर देती है। इस वक्त मोदी सरकार के पक्ष में केवल दो ही बातें हैं-
(1) मज़बूत और एकजुट विपक्ष की अनुपस्थिति।
और
(2) आतंकवाद के चलते दुनिया भर में मुसलमानों के प्रति व्याप्त नफरत, जिससे भारत के हिन्दू भी ध्रुवीकृत हुए हैं।
इनमें दूसरा फैक्टर आने वाले दिनों में कमज़ोर पड़ सकता है, क्योंकि भारत के बहुसंख्य हिन्दू उदारवादी हैं और लंबे समय तक वे किसी समुदाय के प्रति नफ़रत में नहीं रह सकते। सरकार के कामों का असर अगर ज़मीन पर नहीं दिखाई दिया, तो आज जो हिन्दू सरकार के साथ खड़े हैं, कल वही कहेंगे कि विफलता छिपाने के लिए बांटने वाली राजनीति की जा रही है।
इसलिए, मिला-जुलाकर मोदी सरकार के पक्ष में एक ही बात रह जाती है। मज़बूत और एकजुट विपक्ष की अनुपस्थिति। यह अनुपस्थिति भी तभी तक रहेगी, जब तक कि जनता की निराशा हद से अधिक नहीं बढ़ती। अगर यह निराशा हदें पार कर गईं, तो विपक्ष भी पुनर्जीवित हो सकता है, जो कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता-परिवर्तन चक्र के अनुरूप ही होता है। ऐसा मान लेना कि विपक्ष ख़त्म हो जाएगा या भारत कांग्रेस-मुक्त हो जाएगा- व्यावहारिक सोच नहीं है।
दरअसल, लोगों ने तीन साल तक मोदी सरकार को भरपूर मौका दिया है। उसके बाद से लोग सरकार के कामों की समीक्षा करने लगे हैं। करें भी क्यों नहीं? मोदी ने देश से बड़े-बड़े वादे किए थे, बड़े-बड़े सपने दिखाए थे। कांग्रेस के 60 साल के बदले सिर्फ़ 60 महीने मांगे थे। उनमें 40 महीने बीत चुके हैं। कई बातों को ख़ुद पार्टी नेताओं ने ही जुमला कह दिया। कई बातों को लोग अब अपने आप जुमला मानने लगे हैं।
इन 40 महीनों में लोगों के हाथ आंकड़े तो बहुत आए। मसलन, 100 करोड़ आधार कार्ड, 30 करोड़ जनधन खाते, 8 करोड़ मुद्रा लोन, 1 करोड़ गैस सिलिंडर वगैरह-वगैरह। लेकिन इन आंकड़ों से ज़मीन पर कितना बदलाव हुआ, लोगों के जीवन में कितना परिवर्तन आया, नौजवानों के रोजगार का संकट कितना कम हुआ, लोगों की आमदनी कितनी बढ़ी, महंगाई कितनी कम हुई या काबू में आई- समीक्षा इन आधारों पर ही होगी। आंकड़े तो हर सरकार के पास होते हैं। कांग्रेस के पास भी कभी सुनहरे आंकड़ों की कमी नहीं रही। सरकारी बुकलेट और विज्ञापनों में छपने वाले आंकड़े अक्सर जनता के दिलों पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाते।
इन सवा तीन सालों में मोदी सरकार की अपेक्षा से कम सफलता का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि मोदी अपना एक ढंग का मंत्रिमंडल तक नहीं बना पाए। महत्वपूर्ण मंत्रालयों में बिठाने के लिए उनके पास अच्छे लोगों की लगातार कमी रही, जबकि बीजेपी के पास ऐसे लोगों की कतई कमी नहीं थी। सुषमा स्वराज, नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और पीयूष गोयल जैसे चंद मंत्रियों को छोड़ दिया जाए, तो उनके अधिकांश मंत्री नॉन-परफॉर्मर निकले। रेल मंत्रालय, मानव संसाधन मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय इत्यादि महत्वपूर्ण विभाग कृपापात्र लोगों के सहारे चलाए जाते रहे और वित्त मंत्रालय का परफॉरमेंस भी लगातार सवालों के घेरे में है।
बीजेपी, जिसकी सबसे बड़ी ख़ासियत ही लोग यह समझते थे कि इसके पास नेताओं की कमी नहीं है, उस बीजेपी में लोगों ने बड़े-बड़े नेताओं को बौना और असहाय बनते देखा। अगर यह मीडिया रिपोर्ट सही है कि राजनाथ सिंह जैसे कद्दावर ने एक दिन संघ से कहा कि वे सरकार छोड़कर संगठन में आना चाहते हैं, तो स्थिति की गंभीरता समझी जा सकती है। आज सुषमा स्वराज का वह तेज़ कहां विलुप्त हो गया, जिसे लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर देखकर विपक्षी पार्टियों के लोग भी मोहित हो जाते थे?
शायद मोदी समझते हैं कि लोग उनके पीछे हैं, लेकिन हमारी समझ कहती है कि लोग सपनों के पीछे हैं। सपने टूट जाते हैं, तो बड़ी-बड़ी मूर्तियां टूट जाती हैं। जब स्वयं उन्होंने आडवाणी जैसे विशालकाय फादर फिगर की मूर्ति तोड़ दी, तो प्रतिदिन आडवाणी के पैर छूने वाले नेता भी इसके ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं बोल पाए। क्यों? क्योंकि आडवाणी के लिए पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में श्रद्धा और सहानुभूति तो थी, लेकिन अब वे किसी राष्ट्रीय स्वप्न के वाहक नहीं रह गए थे।
मेरी राय में आज भी बीजेपी में सबसे बड़े नेता वाजपेयी और आडवाणी ही हैं और आने वाले कई साल तक वही रहेंगे। चार साल की सत्ता से कोई भी व्यक्ति वह जगह नहीं ले सकता, जो आदमी 60 साल के संघर्ष से हासिल करता है। कांग्रेस के भीतर प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव को आज कौन याद करता है, जबकि भारत में आर्थिक उदारीकरण के प्रथम प्रयोक्ता वही थे और मनमोहन सिंह को उन्होंने ही खोजकर निकाला था। पार्टी हमेशा उसी की रहती है, जिसने उसे बनाया हो। बीच वाले लोगों को विनम्रता और कृतज्ञता दिखाते हुए परफॉर्म करने पर ध्यान देना चाहिए।
पिछले दो-तीन महीनों के भीतर कई घटनाएं हो गई हैं, जिनसे मोदी सरकार की साख पर खरोंच आई है-
(1) जब उन्होंने आडवाणी को राष्ट्रपति नहीं बनने दिया। इससे मोदी के व्यक्तित्व को विशाल मानने वाले लोगों को तगड़ा झटका लगा।
(2) जब गोरखपुर और नासिक से लेकर गुड़गांव तक बच्चों की मौत और हत्या की ख़बरें आईं। आख़िर इन्हीं बच्चों के लिए तो हम लोग सब कुछ करते हैं और अगर उनकी ही रक्षा और सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो पाएगी, तो इस देश में कौन है, जो कथित विचारधाराओं को ढोता रहेगा?
(3) जब हरियाणा में राम रहीम के समर्थकों ने उत्पात किया और खट्टर सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रह गई। ऐसा नज़ारा तो कश्मीर में भी नहीं दिखाई देता, जब एक ही दिन में 35 से अधिक लोग मारे जाएं। जाट आंदोलन के समय हुई हिंसा का ठीकरा तो कांग्रेस के ऊपर फोड़ दिया गया, लेकिन इस बार वैसा करना आसान नहीं था। कुछ लोगों ने पंजाब की कांग्रेस सरकार की तरफ़ मुद्दे को डायवर्ट करने की कोशिश भी की, लेकिन वह हो नहीं पाया।
मुमकिन है कि 2019 में मोदी दोबारा सत्ता में आ जाएं, लेकिन जनता के दिलो दिमाग पर असर छोड़ने में वे नाकाम साबित हो रहे हैं। उन्हें सोचना पड़ेगा। पूर्वाग्रह के कारण मैं किसी की आलोचना नहीं करता, इसलिए मेरी इन बातों को यदि समर्थन या विरोध से ऊपर उठकर देखा जा सके, तो यह मेरी हार्दिक इच्छा है कि वे एक सफल प्रधानमंत्री साबित हों, क्योंकि अगर वे विफल होंगे, तो भारत भी विफल होगा। आख़िर भारत और हम सबका नेतृत्व तो उन्हीं के पास है। इसलिए, हम एक एलार्म बजा रहे हैं। इसे एक एलार्म की तरह ही लीजिए।
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