ऐसे कृतघ्न समाज के लिए क्या कहूं?

अभिरंजन कुमार जाने-माने पत्रकार, कवि और मानवतावादी चिंतक हैं।

यूं तो ऐसा मेरे लेखों और अन्य रचनाओं के साथ अक्सर होता रहता है, लेकिन आज लगा कि अपना दर्द आप लोगों के साथ साझा कर लूं।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नाम 2 जून को लिखा मेरा खुला पत्र वायरल हो गया। बहसलाइव.कॉम और आईचौक.इन से तो फेसबुक, ट्विटर और गूगल प्लस पर महज 19-20 हज़ार लोगों ने ही इसे शेयर किया, लेकिन व्हाट्सऐप के ज़रिए लाखों या कहें अनगिनत लोगों ने इसे शेयर किया।

वैसे तो किसी भी लेखक का मूल मकसद वह संदेश ही होता है, जो वह लोगों तक पहुंचाना चाहता है, लेकिन फिर भी बुरा लगता है, जब व्हाट्सऐप के कलाकार मूल लेखक का ही नाम गायब कर देते हैं। इस खुले पत्र के साथ भी ऐसा ही हुआ। ऊपर का “आदरणीय नीतीश कुमार जी” रहने दिया और नीचे से “आपका अभिरंजन कुमार” ग़ायब कर दिया।

एक बार जब व्हाट्सऐप पर यह सिलसिला चल पड़ा, तो फिर वहां से कॉपी पेस्ट करके वापस फेसबुक पर इसे अपने नाम से छापने का सिलसिला भी शुरू हो गया। फिर उन तमाम जगहों से भी यह वापस बड़ी संख्या में शेयर होने लगा। हैरानी इस बात की भी है कि जिस खुले पत्र में नकल और चोरी जैसी प्रवृत्तियों का विरोध किया गया है, ख़ुद वह पत्र ही नकल और चोरी का शिकार हो गया।

कुल मिलाकर, पिछले दो दिन इस पत्र ने मुझे जितनी संतुष्टि दी, आज उतना ही दुखी कर दिया। सोचता हूं कि अगर यह समाज लेखक को सिर्फ़ उसका क्रेडिट/नाम भी नहीं दे सकता, तो क्या दे सकता है? बड़े-बड़े लेखक यूं ही अभाव और गुमनामी में जीकर ख़त्म नहीं हो गए।

आप इस बात का अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते कि आप सबके लिए एक-एक लेख लिखने में कितना कष्ट, कितने ख़तरे उठाता हूं मैं। अपने जिस समय का इस्तेमाल करके मोटी रकम कमा सकता हूं, उस समय में आप लोगों के लिए फ्री में लिखता हूं और हमेशा अभाव-ग्रस्त रहता हूं। फिर भी कभी इन बातों को आपसे ज़ाहिर नहीं होने दिया।

बीस साल में पहली बार आज अपना दर्द ज़ाहिर कर रहा हूं, क्योंकि मन दुखी हो गया है। समाज हमसे उम्मीदें तो बहुत रखता है, लेकिन हमारा नाम तक हमसे छीन लेना चाहता है। हमें न्यूनतम मान-सम्मान देने को भी तैयार नहीं। कुछ और की तो हम चाह भी नहीं रखते। ऐसे कृतघ्न समाज के लिए क्या कहूं?

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