हो सके तो दो-चार मानवाधिकारवादियों को भी बोनट पर घुमा दीजिए!
वैसे हमारे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने एक कथित पत्थरबाज़ को जीप की बोनट पर बांधने के लिए सेना की ख़ूब आलोचना की है, लेकिन मुझे लगता है कि सेना को ऐसे एक नहीं, सौ पत्थरबाज़ (सिर्फ़ पत्थरबाज़) पकड़ने चाहिए और घाटी में अपने तमाम ऑपरेशनों और आवाजाही के दौरान उन्हें अपनी गाड़ियों के आगे टांगे रखना चाहिए। इससे एक तरफ़ जहां पत्थरबाज़ों को घाटी में सेना की सुरक्षा में खुली जीप पर सैर करने का आनंद मिलेगा, वहीं सेना को भी दिहाड़ी पत्थरबाज़ों से मुक्ति मिल जाएगी।
देखा जाए तो घाटी में हिंसा और पत्थरबाज़ी से निपटने का यह सबसे कारगर और गांधीवादी तरीका है, जिसके ज़रिए बिना एक बूंद ख़ून बहाए शांति कायम की जा सकती है। साथ ही, जो लोग आतंकवादियों से पैसे लेकर हिंसा और पत्थरबाज़ी कर रहे हैं, उन्हें भी अच्छा सबक दिया जा सकता है। सेना पत्थरबाज़ों को गोली मारे, उनपर पैलेट गन चलाए या प्लास्टिक बुलेट का इस्तेमाल करे- इसकी तुलना में पत्थरबाज़ों को बोनट पर बांधना सर्वाधिक अहिंसक और नुकसानरहित तरीका है।
दरअसल, जो लोग मानवाधिकारों की आड़ में पाकिस्तान और आतंकवादियों के लिए छिपे तौर पर काम कर रहे हैं, वे सेना के इस ज़बर्दस्त आइडिया से सदमे में आ गए हैं। उन्हें फौरन समझ आ गया कि अगर सेना ने इस प्रयोग को व्यवहार में उतारने का फ़ैसला कर लिया, तो बिना ख़ून बहाए पाकिस्तान और आतंकवादियों की खटिया खड़ी हो जाएगी, इसीलिए उन्होंने मानवाधिकारो की आड़ में इसका विरोध करना शुरू कर दिया।
दरअसल ये तथाकथित मानवाधिकारवादी चाहते ही नही कि घाटी में शाति बहाल हो, क्योंकि अगर वहां शांति कायम हो गई, तो इन सबकी दुकानदारी बंद हो जाएगी। सच यही है कि इनके बीवी-बच्चों की मौज-मस्ती हिंसा और रक्तपात से होने वाली कमाई से ही चलती है। इसलिए, चाहें तो आप मेरी भी आलोचना शुरू कर दें, लेकिन मेजर गोगोई, जिन्होंने पत्थरबाज़ को ढाल की तरह इस्तेमाल करने का आइडिया निकाला, मै उनके बुद्धि-विवेक को तह-ए-दिल से सलाम करता हूं।
मैं चाहता हूं कि घाटी में गोली-बंदूक, पैलेट गन, प्लास्टिक बुलेट, आंसू गैस इत्यादि सभी तरह के हथियारों का इस्तेमाल बंद हो। यकीन मानिए, जब सेना के जवान मरते हैं, तब तो ख़ून खौलता ही है, लेकिन अगर पत्थरबाज़ भी मारे जाएं, तो अच्छा नहीं लगता, क्योंकि भले ही वे रास्ता भटक रहे हैं, लेकिन हैं तो हमारे अपने ही। इसलिए अगर उन्हें गांधीवादी तरीके से सुधारा जा सके, तो इससे अच्छी बात कुछ भी नहीं हो सकती।
मेरा सुझाव है कि पत्थबाज़ों के अलावा हो सके, तो दो-चार मानवाधिकारवादियों और अलगाववादी नेताओं को भी जीप पर बांधकर घाटी में घुमा दीजिए। मज़ा आ जाएगा। और अगर लगातार दस-पंद्रह दिन भी आपने ऐसा कर दिया, तो जन्नत पहुंचकर 72 हूरों के साथ रंगरलियां मनाने का सपना देखने वाले सभी लोग तत्काल सुधर जाएंगे। क्योंकि इसके बाद उन्हें पता होगा कि अगर फिर से हिंसा या पत्थरबाज़ी की, तो फिर से बोनट पर बांध दिये जाएंगे।
इसलिए, भाड़े के मानवाधिकारवादियों और बिके हुए नेताओं द्वारा की जा रही आलोचनाओं की परवाह नहीं करते हुए सेना इस नायाब प्रयोग को कुछ दिन अवश्य जारी रखे। अरे, कोई मुल्क आतंकवादियों के माथे पर 10 हज़ार किलो का बम फोड़ रहा है, उससे तो लाख दर्जे बेहतर यह विकल्प है। आख़िर सेना को कुछ तो करने दोगे?