मेरी हिन्दू दुकान, तेरी मुस्लिम दुकान… भाड़ में जाए मानवता और ईमान!

अभिरंजन कुमार जाने-माने पत्रकार, कवि व मानवतावादी चिंतक हैं।
  • नरेश ने सीट विवाद में जुनैद की हत्या कर दी।
  • आदिल ने 21 साल की रिया गौतम की हत्या कर दी।
  • कुछ लोग, जिन्हें हिन्दू कहा गया, उन्होंने कथित गोमांस भक्षक अखलाक की हत्या कर दी।
  • कुछ लोग, जिन्हें मुस्लिम कहा गया, उन्होंने कथित गोरक्षक प्रशांत पुजारी की हत्या कर दी।
  • कुछ युवक, जिनकी पहचान हिन्दू बताई गई, उन्होंने पहलू खान को मार डाला।
  • कुछ युवक, जिनकी पहचान मुस्लिम बताई गई, उन्होंने डॉ. पंकज नारंग को मार डाला।

यानी ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमें हिन्दू पहचान वाले लोग मुसलमानों की हत्या कर रहे हैं। और ऐसे भी अनेक मामले हैं, जिनमें मुस्लिम पहचान वाले लोग हिन्दुओँ की हत्या कर रहे हैं। फिर पीड़ित कौन हुआ? हिन्दू या मुसलमान? या बेचारी मानवता?

  • ऐसे भी अनेक मामले हैं, जिनमें एक हिन्दू दूसरे हिन्दू को मार रहा है।
  • ऐसे मामले भी अनेक हैं, जिनमें एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को मार रहा है।
  • जब हिन्दू हिन्दू को मारते हैं, तो हिन्दू एकता का सबक उन्हें याद नहीं रहता।
  • जब मुस्लिम मुस्लिम को मारते है, तो ईद पर ली गई भाईचारे की शपथ वे भूल जाते हैं।

यानी वास्तव में ये लोग हमारे समाज के अपराधी हैं, जिन्हें हम सुविधा, सियासत या सनसनी फैलाने के चक्कर में किसी न किसी जाति या धर्म से जोड़ देते हैं। और इन अपराधियों के लिए भी इससे बेहतर बात क्या हो सकती है, क्योंकि अपने अपराध छिपाने, उन्हें जायज़ ठहराने या अपना बचाव करने के लिए उन्हें भी कोई न कोई रक्षा कवच तो चाहिए और जाति एवं धर्म से बेहतर कवच क्या हो सकता है?

इसीलिए आप देखते हैं कि एक तरफ़ जहां सैकड़ों लोगों की हत्याओं के गुनहगार याकूब मेमन के जनाजे में हज़ारों मुसलमान उमड़ पड़ते हैं, वहीं छोटा राजन जैसे अपराधी को भी राष्ट्रवादी डॉन मानने वालों की कमी नहीं। इसीलिए आप देखते हैं कि एक तरफ़ अफजल, बुरहान, मुख्तार अंसारी और शहाबुद्दीन के भी हज़ारों फॉलोअर्स तैयार हो जाते हैं। दूसरी तरफ़ राजा भैया, डीपी यादव और अमरमणि-अमनमणि के भी बेशुमार समर्थक तैयार हो जाते हैं।

इसे थोड़ा और तफसील से समझने की कोशिश करेंगे, तो पाएंगे कि जब हिन्दू ही हिन्दू की हत्या करते हैं, तो हिन्दूवादी विचारकों को धर्म पर संकट नज़र नहीं आता। इसी तरह जब मुस्लिम ही मुस्लिम की हत्या करते हैं, तो कोई नहीं कहता कि इस्लाम खतरे में है। पाकिस्तान में इस्लाम का झंडा दिन-रात फहरा रहा है, इसके बावजूद, कि अल्पसंख्यकों को खत्म करने के बाद वहां अब शिया और सूफी मुसलमानों को खत्म करने का अभियान चलाया जा रहा है।

पाकिस्तान में जिन बेटियों को स्कूल जाने पर गोली मारी जा रही है, वे बेटियां भी मुसलमान हैं और जिन भाइयों की गाना गाने पर हत्या हो रही है, वे भाई भी मुसलमान हैं। जिन मज़ारों पर आतंकवादियों के हमले हो रहे हैं, वे मज़ारें भी मुसलमानों की ही हैं। लेकिन आज तक एक भी मुसलमान मुझे ऐसा नहीं मिला, जो कहे कि पाकिस्तान में इस्लाम खतरे में है। इसी तरह, जब हमारे कश्मीर में हमारे बहादुर भाई लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की मुसलमान आतंकवादियों ने ही हत्या कर दी, तब भी किसी मौलाना या आलिम ने नहीं कहा कि इस्लाम खतरे में है।

इसका मतलब यह हुआ कि धर्मों को खतरे में बताया जाता है बस अपनी-अपनी दुकानदारी चलाने के लिए। मेरे हिन्दू विचारक इस बात पर चिंतन नहीं करना चाहते कि बौद्ध, जैन, सिख इत्यादि कितने उनसे अलग हो गए और कितने धर्म-परिवर्तन करके मुसलमान व ईसाई बन गए। वे धर्मांतरित ईसाइयों और मुसलमानों की घर-वापसी तो कराना चाहते हैं, लेकिन अपने समाज के भीतर जाति की उन बेड़ियों को तोड़ने को तैयार नहीं हैं, जिनकी वजह से हिन्दू समाज लगातार विखंडित हुआ है।

इसी तरह मेरे मुस्लिम विद्वान भी इस बात पर चिंतन नहीं करना चाहते कि 1400 साल से वे जितना “इस्लाम खतरे में, इस्लाम खतरे में” रटते रहे हैं, उससे दूसरे धर्म-समुदायों के लोग ख़तरे में आ जाते हैं। उनके इतिहास और वर्तमान में हिंसा, रक्तपात और जबरन धर्मांतरण की मिसालें अधिक हैं, इंसानियत की कम। अगर केवल भारतीय मुसलमानों की भी बात करें, तो भारत में मुसलमानों की स्थिति पाकिस्तानी मुसलमानों से लाख दर्जे बेहतर है। जितने मुसलमान पाकिस्तान में एक साल में मारे जाते हैं, उतने भारत में 70 साल में तमाम दंगों को मिलाकर भी नहीं मारे गए। लेकिन पाकिस्तान में इस्लाम का झंडा लहलहा रहा है और भारत में इस्लाम खतरे में है। एक पाकिस्तान बनाया, उससे इस्लाम को बचाने का काम पूरा नहीं हुआ, तो अब कुछ लोगों को कश्मीर में दूसरा और पश्चिम बंगाल में तीसरा पाकिस्तान बनाना है।

यह कितने दुख की बात है कि एक पैगम्बर की आलोचना में कोई फेसबुक पर कुछ लिख दे, तो धर्मरक्षक मुसलमानों की टोली शहर के शहर जला देती है। लेकिन जब आतंकवादी दुनिया भर में बेगुनाहों की हत्या करते हैं, तो उन्हें लगता है जैसे कोई बकरीद मनाई जा रही है। इन लोगों का यह इस्लाम आतंकवाद के ख़िलाफ़ खड़ा हुए बिना ही दुनिया से अपेक्षा करता है कि आतंकवाद को इस्लाम से न जोड़ा जाए।

कुल मिलाकर, धर्म को धंधा बना चुके लोग इसके नाम पर दिन-रात मानवता को कुचलने का खेल खेल रहे हैं और जाने-अनजाने हममें से कुछ लोग इस खेल के मूक दर्शक, तो कुछ तालीबाज़ दर्शक बन जाते हैं। आज स्थिति यह बन गई है कि कहीं कोई मुसलमान एक हिन्दू की हत्या कर दे, तो बड़ी संख्या में ऐसे मुस्लिम हैं, जो इससे दुखी नहीं होते, बल्कि कहते हैं कि धर्म के खिलाफ कोई बात वे नहीं सहेंगे। इसी तरह कहीं कोई हिन्दू किसी मुस्लिम की हत्या कर दे, तो अनेक हिन्दू आज यह कहने लगे हैं कि हिन्दू जाग रहा है। धर्म की रक्षा और धर्म-जागरण का यह तरीका हमारी समझ से तो बाहर है।

धर्म की आग में नफ़रत का घी डालने के काम में विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं और एजेंट बुद्धिजीवियों की भूमिका तो सबको मालूम है, लेकिन सबसे ज़्यादा पीड़ित करती है मीडिया की भूमिका। मीडिया आज सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के घृणित काम में भी टीआरपी, रीडरशिप और बिजनेस ढूंढ़ने लगा है। ठेका ले-लेकर देशवासियों के दिलों में एक-दूसरे के लिए घृणा पैदा की जा रही है। और हैरानी इस बात की है कि यह काम बड़े ही सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। हिन्दुओं को भड़काने के लिए पहले मुसलमानों को भड़काने का रास्ता अपनाया जाता है।

आप देखें कि जब किसी हिन्दू पर किसी मुस्लिम अपराधी द्वारा हिंसा की जाती है, तो मीडिया आम तौर पर उसे एक आपराधिक घटना के तौर पर ही पेश करता है और सांप्रदायिक रंग देने से बचता हुआ दिखाई देता है। सरसरी तौर पर हम इस समझदारी की सराहना भी कर सकते हैं, लेकिन साज़िश तब समझ में आ जाती है, जब किसी हिन्दू अपराधी द्वारा किसी मुस्लिम के ख़िलाफ़ हिंसा की जाती है और मीडिया ज़ोर-ज़ोर से इसे सांप्रदायिक हिंसा और मुसलमानों पर हिन्दुओं का अत्याचार कहना शुरू कर देता है।

इसमें साज़िश यह है कि चूंकि मुसलमान धर्म को लेकर अधिक टची होते हैं, इसलिए उन्हें भड़काना आसान होता है। उनकी इस कमज़ोर नस को समझते हुए नेताओं और एजेंट बुद्धिजीवियों के इशारे पर मीडिया उन्हें भड़काने का कोई भी मौका नहीं चूकना चाहता। उन्हें पता है कि मुसलमान भड़केंगे, तो हिन्दू अपने आप भड़केंगे। मुसलमान इस साज़िश को समझ नहीं पाते और झूठ व नफ़रत के इन विक्रेताओं को उल्टे अपना हितैषी मान लेते हैं। जितना वे भड़कते हैं, उतनी उनकी छवि ख़राब होती है। उनकी छवि खराब होती है, तो बहुसंख्य आबादी में उनके प्रति नफरत पैदा होती है। नफ़रत पैदा होती है, तो ध्रुवीकरण का वह चक्र पूरा हो जाता है, जिसके लिए इतनी साज़िशें रची जाती हैं।

हम चाहते हैं कि मीडिया, नेता या बुद्धिजीवी किसी समुदाय विशेष के प्रति अतिरिक्त पक्षधरता अथवा चिंता न दिखाएं, बल्कि केवल निष्पक्षता की नीति पर कायम रहें और सांप्रदायिक तनाव अथवा दंगों की स्थिति में उचित मर्यादाओं का पालन करें। साथ ही, अपनी तरफ़ से किसी घटना को सांप्रदायिक रंग न दें। वे अपने मन से यह गलतफहमी निकाल दें कि वे किसी की रक्षा कर सकते हैं। इस देश में सबकी रक्षा करने के लिए एक संविधान पहले से मौजूद है और हम सभी अगर ठीक से उसी का पालन कर लें, तो देश का बहुत भला हो जाएगा।

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