जस्टिस कुरियन, अब यह अदालत का अंदरूनी मसला नहीं है!
देश के मुख्य न्यायाधीश को जनता की अदालत में खड़ा करने वाले चार न्यायाधीशों में से एक जस्टिस रंजन गोगोई ने एक दिन बाद ही कह दिया कि कोई संकट नहीं है. दूसरे जस्टिस कुरियन जोसफ ने कि इस मामले में “बाहरी हस्तक्षेप” की कोई जरूरत नहीं है. यह सर्वोच्च न्यायालय का “अंदरुनी मसला” है और वह सभी इसे “खुद ही” सुलझा लेंगे. बात सही है. यह मसला सर्वोच्च न्यायालय का अंदरुनी मसला है, लेकिन यहां सवाल उठता है कि इस “अंदरुनी” मसले को सार्वजनिक किसने किया? सर्वोच्च अदालत की साख को बट्टा किसने लगाया? और ऐसा करने पर क्या कोई जवाबदेही बनती है या नहीं?
शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों जस्टिस कुरियन जोसफ, जस्टिस जे चेलामेश्वर, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस रंजन गोगोई ने हैरतअंगेज तरीके से प्रेस कॉन्फ्रेंस की और पूरी दुनिया को बताया कि सर्वोच्च न्यायालय में न्याय की अवधारणा खतरे में है. ऐसा इसलिए कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा जजों का रोस्टर लगाने में भेदभाव कर रहे हैं और कुछ “चुनिंदा मामलों” को अपनी “पसंद की बेंच” को सौंप रहे हैं. चारों न्यायाधीशों के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश के इस रवैये से “देश का लोकतंत्र खतरे में है”. यह एक बेहद संगीन आरोप है. खौफनाक भी. और अब जस्टिस कुरियन या अन्य कोई चाहे भी तो इस मामले को अंदरुनी मामला बता कर रफा दफा नहीं कर सकता क्योंकि उन्हीं के शब्दों के मुताबिक इस मसले से देश के लोकतंत्र का भविष्य जुड़ा है. लिहाजा चारों न्यायाधीशों की बगावत पर व्यापक बहस होनी चाहिए. इस पर भी कि ज्यादा बड़ा खतरा किससे पैदा हुआ है? मुख्य न्यायाधीश के भेदभावपूर्ण रवैये से या फिर चारों न्यायाधीशों की बगावती प्रेस वार्ता से? उस प्रेस वार्ता से जिसने एक झटके में मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय समेत देश की पूरी न्यायिक व्यवस्था की छवि ध्वस्त कर दी है. यह न्यायाधीशों द्वारा न्यायपालिका की ऐसी घोर अवमानना है, जिसकी गूंज आने वाले वक्त में अक्सर सुनाई देगी और उसके दूरगामी परिणाम निकलेंगे.
अदालत की अवमानना की जब व्याख्या की जाती है तो उसमें फैसलों की आलोचना करने का अधिकार तो होता है, लेकिन अदालत की मंशा पर संदेह करने का नहीं. अदालत के किसी फैसले से नाखुश हुआ जा सकता है और यह भी कहा जा सकता है कि न्याय नहीं हुआ है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि फैसला पक्षपातपूर्ण है या प्रभावित है. ऐसा कहना अदालत की अवमानना के दायरे में आता है और इस पर सजा हो सकती है. इस व्याख्या के पीछे एक बड़ा आधार है. किसी भी मामले में सुबूतों और गवाही पर गौर करने के बाद जज अपने विवेक के आधार पर फैसला सुनाता है. विवेक सापेक्ष होता है. किसी भी मामले में दो लोगों की राय भिन्न हो सकती है. यह एक मानवीय दृष्टिकोण है. किसी भी व्यक्ति का विवेक उनकी अपनी बनावट पर निर्भर करता है. उसके परिवेश और उसकी परवरिश पर निर्भर करता है. यह भिन्न-भिन्न हो सकता है. तभी तो अदालत अपने फैसलों को बदलती है. गलत को सही करती है. इसलिए जब अदालत के फैसलों को गलत ठहराया जाता है तो यह समझा जाता है कि जज ने अपने विवेक के आधार पर जो फैसला दिया है वह सही नहीं है. हो सकता है कि गवाहों की बात समझने में, सुबूतों के विश्लेषण में जज से कोई चूक हुई हो, या फिर उसका विश्लेषण न्याय संगत नहीं हो.
लेकिन यह कहना कि अदालत या जज का रवैया पक्षपातपूर्ण है या प्रभावित है, अदालत और जज की नीयत पर सवाल उठाना है. न्याय के मंदिर पर, न्याय के रखवाले पर सौदेबाजी और न्याय के विरुद्ध कोई साजिश रचने का आरोप लगाना है. ऐसी छूट न्यायिक व्यवस्था नहीं देती है. अगर यह छूट दी जाएगी तो न्यायिक व्यवस्था पर से लोगों का भरोसा उठ जाएगा. अराजकता फैलेगी. इसलिए साजिश या सौदेबाजी का आरोप लगाने पर उसे साबित करना होता है. अगर साबित नहीं हुआ तो अदालत सजा सुना सकती है. अवमानना के आधार पर ही बीते साल कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सी एस कर्णन को छह महीने कारावास की सजा सर्वोच्च अदालत की एक बेंच ने सुनाई थी. उस बेंच में प्रेस वार्ता करने वाले चारों न्यायाधीश शामिल थे. जस्टिस कर्णन छह महीने सजा काटने के बाद बीते महीने ही जेल से रिहा हुए हैं. इसलिए शुक्रवार को जब चारों न्यायाधीशों ने आरोप लगाया कि मुख्य न्यायाधीश ने “देश और संस्था” से जुड़े “अत्यधिक महत्वपूर्ण मामलों” को अपनी “पसंद की बेंचों” को सौंपा है तो उन्होंने मुख्य न्यायाधीश पर पक्षपात करने का आरोप लगाया. उनकी मंशा, उनकी प्रतिबद्धता, उनकी न्यायिक अवधारणा को कठघरे में खड़ा किया. परोक्षरूप से उन तमाम जजों की ईमानदारी, प्रतिबद्धता और विवेक पर भी सवाल उठाए हैं जो मुख्य न्यायाधीश की तथाकथित “पसंद की बेंचों” में शामिल हैं.
प्रेस वार्ता करते वक्त चारों न्यायाधीश यह भूल गए कि सिर्फ आरोप लगाने से काम नहीं चलेगा. अगर उन्होंने जनता की अदालत में मुख्य न्यायाधीश को कठघरे में खड़ा किया है तो ऐसा करने के तमाम आधार भी जनता की अदालत में पेश करने होंगे. यह बताना होगा कि “पसंद की बेंचों” के पीछे का सारा रहस्य क्या है? देश और न्यायिक व्यवस्था के विरुद्ध इस बड़ी साजिश के सुबूत क्या हैं? इन चारों न्यायाधीशों की नजर में वो क्या मजबूरियां हैं, कारण हैं, जिनकी वजह से मुख्य न्यायाधीश ने ऐसा किया है? क्योंकि अब बात मुख्य न्यायाधीश के विवेक तक सीमित नहीं है, बात “देश के लोकतंत्र” की है. देश की है. इसलिए जस्टिस कुरियन जोसफ या उनके बाकी तीन साथी अब इस पूरे प्रकरण को सर्वोच्च न्यायालय का अंदरुनी मसला बता कर बच नहीं सके. उन्हें इस पूरे रहस्य से पर्दा उठाना होगा. सर्वोच्च अदालत को “और अधिक शर्मसार” करने वाले सभी सुबूत जनता के सामने रखने होंगे. फिर उन सुबूतों के आधार पर यह साबित होगा कि ये चारों माननीय जिस बड़ी साजिश की ओर इशारा कर रहे हैं, वह वाकई हुई भी है या नहीं. या मामला सिर्फ मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विवेक से जुड़ा है. वह विवेक जिसके इस्तेमाल का अधिकार उन्हें “मास्टर ऑफ द रोस्टर” होने के नाते है. अगर इन चारों ने साहस दिखा कर यह साबित नहीं किया कि “पसंद की बेंचों” को कुछ “चुनिंदा मामले” भेजने से क्यों और कैसे “देश का लोकतंत्र” खतरे में पड़ सकता है तो इन्हें झूठा समझा जाएगा. यह माना जाएगा कि सस्ती लोकप्रियता के लिए इन्होंने ऐसा किया और उस सूरत में इन्हें नैतिक आधार पर अपने पदों से इस्तीफा देना चाहिए.
भविष्य में गुनहगार के तौर पर कठघरे में खड़े किये जाने के डर में इन चारों न्यायाधीशों ने एक अधूरे सच के सहारे मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय और समूची न्यायिक व्यवस्था पर जो चोट की है वह अपने आप में बड़ा गुनाह है. आने वाले समय में इसका भुगतान पूरा देश करेगा. हाल के दिनों में हमारे यहां अदालती फैसलों पर राजनीति बढ़ी है. लोग दबी जुबां में कह रहे हैं कि फैसले प्रभावित होते हैं. लेकिन कोई न्यायिक व्यवस्था को चुनौती नहीं देता. विरोध करने वाले भी यह कहते हुए अपनी बात शुरु करते हैं कि “हम न्यायालय के फैसले का सम्मान करते हैं”. आम जनता को भरोसा है कि निचली अदालत से चूक हो भी जाएगी तो उच्च न्यायालय में इंसाफ होगा. वहां चूक हुई तो सर्वोच्च न्यायालय है. लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय की साख खत्म हो जाए और खुद जज यह साख खत्म करें तो फिर न्यायिक व्यवस्था पर कोई भरोसा करे भी तो कैसे करे? चारों जजों ने कुछ किया हो या नहीं किया हो, सर्वोच्च न्यायालय की छवि धूमिल जरूर की है. यह कुछ वैसा ही वाकया है जब यूपीए कार्यकाल में परमाणु करार पर संसद में चल रही बहस के बीच कुछ सांसदों ने नोटों की गड्डियां लहरायी थीं. विश्व के समक्ष भारतीय संसद और संसदीय व्यवस्था को नंगा किया था. आज सर्वोच्च न्यायालय के ही चार जजों ने पूरी दुनिया को यह बताया है कि भारत की सबसे बड़ी अदालत में इंसाफ का सौदा होता है. यह सौदा खुद मुख्य न्यायाधीश करते हैं. अब आरोप लगाने वाले चारों जज ये स्पष्ट करें कि न्यायिक व्यवस्था पर आम जनता के भरोसे को तोड़ने से बड़ा कोई अपराध हो सकता है क्या?
संवैधानिक संस्थाएं उन मूल्यों की रक्षा के लिए होती हैं, जिनसे कोई भी लोकतंत्र मजबूत होता है। लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट जैसी एक अहम संवैधानिक संस्था में मूल्यों पर संकट के बादल मंडराते हैं तो यह लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक संकेत बनकर उभरता है। याद रखिए कि एक बेहतर सिस्टम के लिए सिर्फ साध्य ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि इसी शिद्दत से साधन की पवित्रता भी मायने रखती है। सुप्रीम कोर्ट में शीर्ष के चार जजों का घमासान उस साधन की साख पर भी उठा एक बड़ा सवालिया निशान है। कहीं ऐसा ना हो कि सबसे बड़ी अदालत की साख हमेशा के लिए खत्म हो जाए और बच जाए तो जजों की निजी लड़ाई से पैदा राख।
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