लालू-नीतीश तलाक प्रसंग: हम विचारों को बदलते रोज़ लुंगी की तरह, मुल्क को अब है बजाना रोज़ पुंगी की तरह!
नेता और एक आम आदमी में क्या फ़र्क़ होता है, इसकी सबसे अच्छी मिसाल मुझे घर में ही मिल जाती है। मेरे पिताजी ने भी छात्र जीवन में जेपी आंदोलन में हिस्सा लिया था, राजनीति में गहरी दिलचस्पी थी, लेकिन जीवन की आपाधापी या कहिए दो बच्चों को पालने की मजबूरी में सरकारी नौकरी कर ली। उन्हें वह ट्रिक नहीं आता था कि नेतागीरी करते हुए कैसे पैसे बनाए जाते हैं, इसलिए पैसे बनाने की बजाय उल्टे भारी कर्ज में डूब गए और परिवार की आर्थिक हालत अत्यंत खस्ता हो गई।
हम दोनों भाइयों ने भी अपने बचपन में वह अभाव देखा और झेला है। फिर जब पिताजी नौकरी में आए, तो धीरे-धीरे परिवार के हालात सुधरे, लेकिन वह स्थिति आज तक नहीं आई कि किसी महीने बिना काम किए हम अपने परिवार का लालन-पालन कर सकें। कहने को मैं भी करीब 20 साल से मीडिया और लेखन की दुनिया में सक्रिय हूं, लेकिन चाहें तो मेरे पीछे भी सीबीआई लगाकर देख लें कि इन 20 सालों में मैंने क्या कमाया और क्या गंवाया है।
बहरहाल, हम लोग इस बात के गवाह हैं कि राजनीतिक रूप से अत्यंत जागरूक और प्रतिबद्ध होने के बावजूद पिताजी जब एक बार राजनीति छोड़ने को मजबूर हो गए, तो दोबारा उन्होंने कभी इस बात को नहीं भुनाया कि वे भी जेपी के उन तमाम गुमनाम सिपाहियों में से एक थे, जिन्होंने संपूर्ण क्रांति आंदोलन को बुलंदियों पर पहुंचाया था। इसके बावजूद कि आज तक वे उन विचारों से डिगे नहीं हैं, जिनके लिए जेपी के साथ खड़े हुए थे।
पर आज जो लोग रोज़-रोज़ जेपी का नाम भुनाते हैं, उनकी कसमें खाते हैं और उन्हीं का नाम ले-लेकर सियासत में इतनी सीढ़ियां चढ़ गए हैं, उनकी सूरतें देख लीजिए। एक तरफ़ लालू जी की बेनामी संपत्तियों की चर्चा है, तो दूसरी तरफ़ श्री नीतीश कुमार जी हैं, जिनके लिए वैचारिक प्रतिबद्धता कोई मायने ही नहीं रखती! अब तक वे कांग्रेस, बीजेपी, राजद, कम्युनिस्ट सबकी गोदी में बैठ चुके हैं। उनसे पूछना चाहिए कि एक-एक कर सबकी गोदी में बैठने का सुख प्राप्त करके कैसा लगता है आपको?
मैं हैरान होता हूं, जब देखता हूं कि नीतीश कुमार जी एक दिन जिसे गरियाते हैं, दूसरे दिन उसकी ही तारीफ़ में कसीदे गढ़ने शुरू कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने कांग्रेस औऱ लालू का साथ छोड़ दिया है, इसलिए उनकी आलोचना कर रहा हूं। मैंने श्री नीतीश कुमार जी की आलोचना तब भी की थी, जब उन्होंने कांग्रेस की गोदी में बैठने की आतुरता में बीजेपी का साथ छोड़ दिया था। तब भी हमने उनकी चतुराई और लचीलेपन का बखान करने के लिए ये पंक्तियां लिखी थीं-
मुल्क को अब है बजाना रोज़ पुंगी की तरह।”
ऐसा भी नहीं है कि विचारों को लुंगी की तरह प्रतिदिन बदलने वाले नीतीश जी कोई अकेले नेता हैं। मेरे अन्य कई प्रिय नेता, मसलन रामविलास पासवान जी, अजीत सिंह जी, अरविंद केजरीवाल जी इत्यादि अनेक हैं। देखा जाए, तो लालू जी भी ऊपरी तौर पर भले अपने वैचारिक स्टैंड पर अविचलित दिखाई देते हैं, लेकिन इतना समझौता तो उन्होंने भी किया ही है कि इमरजेंसी में जिस कांग्रेस से लड़े, बाद में उसी कांग्रेस के अति-विश्वसनीय सहयोगी बने और आज भी बने हुए हैं। उनसे भी पूछना चाहिए कि जेपी ने तो कांग्रेस से लड़ाई लड़ी थी, फिर आपने उससे दोस्ती कैसे कर ली?
इसलिए, महत्वपूर्ण यह नहीं है कि नीतीश जी किसके साथ आते हैं और किसके साथ जाते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि वे विचारों का ढोंग रचना बंद कर दें, फिर चाहे जो करना हो करें, हम लोग एक शब्द नहीं बोलेंगे।
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