पत्थरबाज़ों को सुधारने के लिए पूरी घाटी में लागू हो मेजर गोगोई मॉडल!

अभिरंजन कुमार जाने-माने पत्रकार, कवि व मानवतावादी चिंतक हैं।

पत्थरबाज़ों को गोली मार नहीं सकते। पैलेट गन से छर्रे मार नहीं सकते। लाठी मार नहीं सकते। पत्थर मार नहीं सकते। जीप की बोनट पर घुमा नहीं सकते। तो फिर उनके साथ क्या किया जाए? सीने पर गोली खाकर, अपने सैकड़ों जवानों को शहीद करके उनके सुधरने का इंतज़ार किया जाए या फिर इस बात का इंतज़ार किया जाए कि किसी दिन पाकिस्तान और आईएसआई का सारा पैसा ख़त्म हो जाए और वह उन्हें फंडिंग करना अपने आप बंद कर दें?

क्या पत्थरबाज़ सिर्फ़ हमारे बिगड़े हुए नौजवान हैं, जिन्हें सुधारने की ज़रूरत है? क्या पत्थरबाज़ सिर्फ़ हमारे नाराज़ हुए नौजवान हैं, जिन्हें मनाने की ज़रूरत है? क्या पत्थरबाज़ सिर्फ़ हमारे बरगलाए हुए नौजवान हैं, जिन्हें समझाने की ज़रूरत है? क्या पत्थरबाज़ों के कथित मानवाधिकार को लेकर हाहाकार मचाने वाले लोग शातिर हैं या फिर हम लोग बेवकूफ़ हैं? क्या पत्थरबाज़ों के लिए पिघलकर पानी बन गए लोग पाकिस्तान के प्यादे हैं या फिर हम लोग ही मानवाधिकारों के दुश्मन हैं?

अगर पत्थऱबाज़ सिर्फ़ हमारे बिगड़े हुए, बरगलाए हुए या नाराज़ नौजवान होते, तो हम भी उनके प्रति सहानुभूति बरतते। लेकिन वे तो पाकिस्तान से पैसा लेकर यह काम कर रहे हैं। वे तो इस्लाम को तथाकथित ख़तरे से निकालने के लिए अन्य लोगों और समुदायों को ख़तरे में डाल रहे हैं। वे तो धर्म के नाम पर देश का दूसरा विभाजन चाहते हैं। वे तो हमारे मुकुट कश्मीर को हमसे छीनकर पाकिस्तान के चरणों पर चढ़ाना चाहते हैं। वे तो एक आतंकवादी देश के वे मानव-हथियार हैं, जो हमारे देश और हमारी सेना के ख़िलाफ़ लगातार इस्तेमाल किए जा रहे हैं।

जब मेरे गांव, मेरे जिले, मेरे राज्य, मेरे देश के दूसरे नौजवान रोटी और रोज़गार की मांग में कहीं पर पथराव कर दें, तब तो उनके समर्थन या बचाव में कोई तथाकथित मानवाधिकारवादी सामने नहीं आता? उनके लिए तो सख्त से सख्त सज़ा की मांग उठाई जाती है? फिर पाकिस्तान से पैसा लेकर कश्मीर में आग लगा रहे ये नौजवान क्यों इतने ख़ास हैं कि उनके कथित मानवाधिकारों के लिए कुछ लोगों का कलेजा फटा जाता है? क्या उनमें सुरखाब के पर लगे हैं? ये कथित मानवाधिकारवादी उन्हें समझाते नहीं कि जब वे पत्थर चलाएंगे, तो गोली भी खानी पड़ सकती है?

बहरहाल, सेना पर सवाल उठाने वाले लोगों की बातों का हम भी समर्थन कर सकते हैं… अगर वे कश्मीर घाटी में जाएं, पत्थरबाज़ों को पत्थरबाज़ी करने से रोकें और घाटी में शांति बहाली की गारंटी दें। लेकिन जब तक पत्थरबाज़ी रुकती नहीं है, जब तक आतंकवादियों के ख़िलाफ़ सेना के अभियानों में बाधा डालने के प्रयास जारी रहते हैं, जब तक हमारे वीर जवानों की जानें जाती रहती हैं, तब तक हम उनके प्रति नरमी कैसे बरत सकते हैं?

यह तो इस देश में एक अजीब रिवाज़ बनाने की कोशिश की जा रही है कि देश के किसी दुश्मन को छू भी दें, तो हाहाकार मचाया जाएगा, आंदोलन किये जाएंगे, भगत सिंह से उसकी तुलना की जाएगी, घर-घर में उसके पैदा होने की दुआएं मांगी जाएंगी, दुनिया में भारत को बदनाम किया जाएगा, लेकिन रोज़-रोज़ हमारे बेशुमार सैनिक मारे जाते रहें, फिर भी दर्द का एक कतरा तक आंखों से न निकले। क्या हमारे ये बहादुर सैनिक किसी मां के बेटे, किसी बहन के भाई नहीं हैं? क्या देश के लिए लड़ना और देश के लोगों की रक्षा करना ही उनका गुनाह बन गया है?

क्या हमारी बौद्धिकता, हमारी लेखकीय ज़िम्मेदारी हमसे यह मांग करती है कि जो कभी भी किसी भी बेगुनाह की जान ले सकते हैं, हम उनसे सहानुभूति करें, पर जो कभी भी किसी भी वक्त किसी की जान बचाने के लिए अपनी जान दे सकते हैं, उन सैनिकों से नफ़रत करें? क्या मानवाधिकारों के प्रति हमारा समर्पण हमसे यह मांग करने लगा है कि हम पाकिस्तान के एजेंटों का बचाव करें और भारत के सिपाहियों को घाव करें?

माफ़ कीजिए। कश्मीर घाटी में शांति बहाली के लिए हमारी सेना चाहे जो भी करे, हम उसके साथ खड़े रहेंगे। किसी पत्थरबाज़ को बोनट पर बांधना तो कोई घटना ही नहीं है। इसमें न तो उसे खरोंच आई, न उसे चोट लगी। यह तो उन्हें सबक सिखाने का सबसे शांतिपूर्ण और रक्तहीन तरीका है। यह तो गांधी के विचारों से भी अधिक गांधीवादी तरीका है। इसीलिए, मेजर गोगोई के धैर्य और संयम, बुद्धि और विवेक की जितनी भी तारीफ़ की जाए, कम ही होगी।

इसलिए आज ज़रूरत इस बात की है कि पूरी घाटी में मेजर गोगोई का बोनट फॉर्मूला लागू किया जाए। सौ पत्थरबाज़ों को पकड़कर सिर्फ़ सात दिन घाटी में घुमा दीजिए। फिर देखिए कि वहां पत्थरबाज़ी रुकती है कि नहीं, पैसा खाकर लोग आतंकवादियों की ढाल बनना बंद करते हैं कि नहीं, हमारे जवानों का मारा जाना बंद होता है कि नहीं, शांति बहाल होती है कि नहीं।

यह भी पढ़ें-

हो सके तो दो-चार मानवाधिकारवादियों को भी बोनट पर घुमा दीजिए!

अभिव्यक्ति की आज़ादी क्या मंदिर का प्रसाद है, कि हर किसी को भोग लगाएँ?

Print Friendly

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Shares