दिल्ली के बाद कर्नाटक में भी वही ब्लंडर- जात भी गंवाए, भात भी न खाए!

अभिरंजन कुमार जाने-माने लेखक, पत्रकार और मानवतावादी चिंतक हैं।

पिछले चार साल में बीजेपी ने दूसरी बार ऐसा ब्लंडर किया है। कर्नाटक से पहले उसने दिल्ली में भी ब्लंडर किया था। जात भी गंवाए, भात भी न खाए। लोकसभा चुनाव 2014 से पहले प्रधानमंत्री बनने का दिवास्वप्न देखकर दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के समर्थन वाली सरकार को 49 दिन में ही छोड़कर भाग गए थे। दिल्ली की जनता में गहरा आक्रोश था। लोकसभा चुनाव में इस आक्रोश की झलक भी मिली, जब दिल्ली में 7 की 7 सीटें बीजेपी ने जीतीं।

बीजेपी के पास यह मौका था दिल्ली में तत्काल विधानसभा चुनाव कराने का। तत्काल चुनाव कराती, तो कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों से नाराज़ वोटर उसे झोली भरकर वोट देते, और विधानसभा में उसे भारी बहुमत हासिल हो सकता था, लेकिन वह यहां भी जोड़-तोड़ में पड़ गई। 70 सीटों वाली विधानसभा में उसके पास 31 सीटें थीं। उसने जुगाड़ लगाना शुरू किया कि चार-पांच विधायक अगर कांग्रेस या आम आदमी पार्टी के तोड़ लिए जाएं, तो सरकार बन जाएगी।

जब जनता आपसे बेहतर की अपेक्षा करती है और आप छोटे खेल में जुट जाते हैं, तो उसकी सज़ा अवश्य मिलती है। बीजेपी को भी सज़ा मिली। जोड़-तोड़ से सरकार तो बन नहीं पाई, उल्टे आठ-नौ महीने बर्बाद हो गए। केजरीवाल ने इस समय का लाभ उठाया और हाथ-पैर जोड़कर जनता को फिर से समझा-बुझा लिया और फिर नतीजा क्या निकला, वह सबको मालूम है। आम आदमी पार्टी ने विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतीं और बीजेपी को सिर्फ़ 3 सीटें मिलीं। कहां 31 पर थे, कहां 3 पर आ गए। और यह सब हुआ लालच के चलते, जनता पर भरोसा छोड़कर जोड़-तोड़ की पॉलिटिक्स में उलझने के चलते।

दरअसल, बीजेपी यह समझ नहीं पा रही है कि उसका वोटर कांग्रेस या उस जैसी अन्य अनेक पार्टियों के वोटर जैसा नहीं है। बीजेपी का वोटर उसे “पार्टी विद अ डिफरेंस” के रूप में देखना चाहता है। उसके मन में अटल-आडवाणी की मूर्ति रहती है। वह कांग्रेस के कारनामों से पका हुआ वोटर है। अगर बीजेपी भी उसे कांग्रेस जैसी ही दिखाई देने लगती है, तो फिर वह उससे मुंह मोड़ने लगता है। बीजेपी समझती है कि उस वोटर को कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की बुराइयां दिखाकर अथवा विकल्पहीनता का हौवा खड़ा करके बांधे रखा जा सकता है, लेकिन ऐसा कुछ समय तक और कुछ हद तक तो शायद संभव हो भी सकता है, पर लंबे समय तक और पूरी तरह संभव नहीं है।

बहरहाल, एक बार फिर से कर्नाटक में भी बीजेपी ने जोड़-तोड़ का ही रास्ता अपनाया। जनता ने उसे 222 में से 104 सीटें दीं। बहुमत से वह भले दूर रह गई, लेकिन वह विजेता पार्टी थी, नंबर एक पार्टी थी। कांग्रेस और जेडीएस- इन दोनों ही दलों को जनता ने सरकार बनाने का मैंडेट नहीं दिया था और इसलिए जनता देख रही थी कि चुनाव के बाद अचानक वे साथ आए केवल और केवल सत्ता के लिए, बीजेपी को रोकने के लिए। जब कांग्रेस और जेडीएस को देश सत्ता-लोलुपता की लार टपकाते देखता, तो बीजेपी को शहीद होने जैसी सहानुभूति अपने आप प्राप्त होती। औऱ देर-सबेर तो उसकी सरकार भी बननी ही थी, जैसे बिहार में बनी। फिर बीजेपी ने अपनी साख और छवि को दांव पर क्यों लगा दिया महज तत्काल सत्ता-प्राप्ति के लिए?

कोई गठजोड़ पाक हो या नापाक हो। अवसरवादी हो या पति-पत्नी जैसा सात जन्मों वाला, जो देश की मौजूदा संवैधानिक स्थिति है, उसमें अगर उसके पास नंबर हैं, तो सरकार वही बनाएगा, यह तय है। इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता। न जनता कुछ कर सकती है, न चुनाव आयोग कुछ कर सकता है, न राज्यपाल कुछ कर सकते हैं, न विधानसभा अध्यक्ष कुछ कर सकते हैं, न कोर्ट कुछ कर सकता है। ये सब तभी कुछ कर सकते हैं जब दोनों ही तरफ बहुमत का आंकड़ा अस्पष्ट हो। लेकिन यहां कांग्रेस-जेडीएस के पोस्ट-पोल एलायंस के पास बहुमत का स्पष्ट आंकड़ा दिखाई दे रहा था। इतनी छोटी-सी बात बीजेपी समझ नहीं पाई। उसके मन में खोट आ गई। उसे लगा कि वह जोड़-तोड़ करके सात-आठ विधायकों का इंतज़ाम कर लेगी।

बीजेपी के नेता यह मान भी रहे थे कि बहुमत में जो कमी है, उसकी भरपाई कांग्रेस या जेडीएस के विधायकों के पाला-बदल करने से ही संभव है। और बहुमत परीक्षण से ठीक पहले पाला-बदल कैसे होता है, इसे सभी जानते हैं। इसे हॉर्स ट्रेडिंग या ख़रीद-फ़रोख्त कहते हैं। सियासी शुचिता के लिहाज से यह ख़रीद-फ़रोख्त सही नहीं मानी जाती, फिर बीजेपी उसमें क्यों पड़ी? क्या एक राज्य की सत्ता इतनी महत्वपूर्ण होती है? क्या केंद्र और 21 राज्यों की सत्ता से भूख नहीं मिटी, कि एक और राज्य नहीं मिलता, तो प्रलय आ जाता? लोकतंत्र में हम क्यों चाहते हैं कि किसी विरोधी पार्टी को ख़त्म कर देंगे? क्या किसी एक पार्टी के चाहने से कोई दूसरी पार्टी ख़त्म हो सकती है?

मेरी राय में किसी पार्टी को अगर कोई ख़त्म कर सकता है, तो वह केवल और केवल जनता ही है और जो पार्टी आज जनता की दुलरुआ बनी है, उसे भी जनता को टेकेन फॉर ग्रान्टेड नहीं समझना चाहिए। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कतिपय खामियों के चलते या संवैधानिक परिस्थितियों के चलते जनता किसी हद तक मजबूर हो सकती है, लेकिन उसकी शक्तियां इतनी भी सीमित नहीं हैं कि कोई पार्टी उसे अपनी प्रजा, भक्त, गुलाम, बंधक इत्यादि समझने लग जाए। एक पार्टी जनता के टेस्ट में खरी नहीं उतरी, तो उसने उसे उखाड़ फेंका। अब दूसरी पार्टी भी उसके टेस्ट पर ही है। इस दूसरी पार्टी को भी उसने देश का पट्टा नहीं लिखा है। कल को अगर यह भी उसकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरेगी, तो इसे भी उखाड़ फेंकेगी वह।

इसलिए, बीजेपी का असली लक्ष्य तो होना चाहिए जनता से किए गए वादे पूरे करने का, उसे खुश और संतुष्ट रखने का, उसे नाउम्मीद नहीं होने देने का। अगर यह लक्ष्य छोड़कर बीजेपी ने कोई दूसरा लक्ष्य तय कर लिया है, तो इसे उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। कर्नाटक के चुनाव परिणाम और बाद की घटनाएं भी इसी का इशारा दे रही हैं। अगर किसी वजह से 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी बहुमत से कुछ सीटें पीछे रह गई, जिसकी संभावना को अभी खारिज नहीं किया जा सकता, तो सभी विरोधी पार्टियां कर्नाटक की ही तरह मिलकर उसे रोकने की कोशिश कर सकती हैं। फिर चाहे केंद्र में भी उसे कुमारस्वामी टाइप ही किसी को क्यों न बिठाना पड़े।

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