अभिव्यक्ति की आज़ादी क्या मंदिर का प्रसाद है, कि हर किसी को भोग लगाएँ?
अभिव्यक्ति की आज़ादी हर व्यक्ति के लिए नहीं होनी चाहिए। मसलन, आमिर ख़ान और शाहरुख़ ख़ान के लिए होनी चाहिए, लेकिन इरफ़ान ख़ान के लिए नहीं होनी चाहिए। मसलन, महेश भट्ट और दिबाकर बनर्जी के लिए होनी चाहिए, लेकिन अनुपम खेर के लिए नहीं होनी चाहिए। मसलन, प्रशांत भूषण और मकबूल फिदा हुसेन (दिवंगत) के लिए होनी चाहिए, लेकिन कमलेश तिवारी के लिए नही होनी चाहिए। मसलन, अरुंधति रॉय और नयनतारा सहगल के लिए होनी चाहिए, लेकिन तस्लीमा नसरीन और तारिक फ़तेह के लिए नहीं होनी चाहिए।
हां, अभिव्यक्ति की आज़ादी सबके लिए नहीं होनी चाहिए। पर यह तय कैसे करेंगे कि अभिव्यक्ति की आज़ादी किसे होनी चाहिए और किसे नहीं होनी चाहिए? …तो इसका एक फ़ॉर्मूला मैं दे रहा हूं। जो अपनी आलोचना का विरोध करने में उग्र हों, उनकी आलोचना करने को अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में नहीं रखना चाहिए, पर जो अपनी आलोचना के प्रति सहिष्णु हों, उनकी आलोचना करना निस्संदेह अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में आना चाहिए। अभिव्यक्ति की आज़ादी हमेशा किसी एक ही पक्ष को मिलनी चाहिए। अगर यह दोनों पक्षों को मिल गई, तो समाज में सौहार्द्र, सहिष्णुता और सेक्युलरिज़्म के लिए ख़तरा पैदा हो जाएगा।
इसलिए हां, सोनू निगम को सिर मूंडकर अवश्य जूते की माला पहनाकर सड़कों पर घुमाना चाहिए, क्योंकि आज अगर बाबा कबीरदास जीवित होते, तो निस्संदेह उन्हें भी सिर मूंडकर जूते की माला पहनाकर घुमाये जाने की आवश्यकता पड़ती। देखिए तो छह सौ साल पहले उस बूढ़े ने कैसी गुस्ताख़ी की थी! कहा था-
“कांकर पाथर जोड़कर मस्जिद लई चिनाय। ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।”
यह सोनू निगम तो सिर्फ़ लाउडस्पीकर पर बवाल कर रहा है, लेकिन वह कबीरदास तो अजान पर ही सवाल खड़े कर रहे थे। इतना ही नहीं, उनका तो जैसे एजेंडा ही था लोगों की धार्मिक भावनाओँ को चोट पहुंचाना। देखिए तो भला, हिन्दुओं के लिए उन्होंने क्या कह डाला था-
“पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़। ताते ये चक्की भली जे पीस खाय संसार।”
हां, मेरा कहना है कि चाहे कबीरदास सरीखा कोई तर्कवादी कवि हो या सोनू निगम सरीखा कोई लोकप्रिय गायक, उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं होनी चाहिए। अभिव्यक्ति की आज़ादी क्या कोई मंदिर का प्रसाद है या गुरुद्वारे में बनने वाला हलवा या ईद पर बनने वाली सेवई, या फिर पंद्रह अगस्त छब्बीस जनवरी की जलेबी, जिसे हर किसी को खाने दे दिया जाए? नहीं… बिल्कुल नहीं। अभिव्यक्ति की आज़ादी का भोग तो सिर्फ़ धर्म, जाति, विचार, दल इत्यादि देखकर ही लगाने दिया जाना चाहिए। शुक्रिया।