शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा और आरएसएस फंस जाएगा!
आरक्षण पर पहले मनमोहन वैद्य और फिर उनके पिता एमजी वैद्य के बयानों से जुड़े विवाद पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सह-सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले की सफाई आई है-
“आरक्षण के विषय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मत को लेकर कुछ विवाद जारी करने का प्रयास चल रहा है। हम इसका कडा विरोध करते हैं। संघ आरक्षण के संबंध में क्या कहता है, इसके बारे में कल जयपुर के लिटरेचर फेस्टीवल में ऒर उसके पश्चात के पत्रकार वार्ता में मैंने स्पष्ट किया था। आज नागपुर में मा.गो. वैद्य जी ने आरक्षण के विषय में जो बयान दिया है, वह उनका व्यक्तिगत अभिप्राय है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उससे सहमत नहीं है। संघ का मत तो स्पष्ट है कि अनुसूचित जाति-जनजाति और ओबीसी के लिए संविधान प्रदत्त आरक्षण जारी रहना चाहिए, उसकी आवश्यकता आज भी है, उसको पूर्ण रूप से लागू करना चाहिए, यही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अधिकृत मत है।”
यह सफाई अच्छी है, पर चुनाव के दिनों में सबको सनसनी चाहिए। राजनीतिक दलों को भी, मीडिया को भी और वोटर को भी। इन दिनों लोगो की दिलचस्पी विवादों को हवा देने में अधिक रहती है, न कि सफाई सुनने में। जिन्हें आरक्षण पर संघ नेताओं के पिछले बयानों से फायदा होगा, वे सब कुछ समझते हुए भी पूरे चुनाव इसे तूल देते रहेंगे। वे जानते हैं कि न तो मोहन भागवत, न मनमोहन वैद्य, न एमजी वैद्य, न स्वयं सरकार के किसी प्रतिनिधि के सोचने या बोलने भर से आरक्षण ख़त्म हो सकता है। इसके लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा और बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार के लिए ऐसा करना अभी संभव नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा वह इसकी समीक्षा के लिए कमेटी बिठा सकती है, जनता से सवाल पूछ सकती है, जैसा उसने समान नागरिक संहिता के मामले में किया है। फिर भी चुनाव में फ़ायदा उठाने के लिए उसके विरोधी वह सब कुछ भी कहेंगे, जो कहा ही नहीं गया है। इसलिए ऐसी सफाई आम दिनों में तो कई बार काम आ जाती है, पर चुनाव के दिनों में बेअसर हो जाती है। बिहार चुनाव में भी हमने यही देखा है।
इसलिए मुझे लगता है कि संघ अपने भीतर साहस लाए। अगर वह सचमुच आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा की ज़रूरत समझता है, तो डंके की चोट पर इसे बोले और उचित तर्कों एवं तथ्यों के साथ इस बहस को आगे बढ़ाए और इसके लिए जनमानस तैयार करे। पर अगर वह ऐसा नहीं कर सकता या ऐसा करने का उसका इरादा नहीं, तो इस मुद्दे पर बोलने से बचना चाहिए, क्योंकि अगर आपको आरक्षण के मौजूदा स्वरूप से कोई शिकायत ही नहीं, तो फिर विचार प्रकट करने की गुंजाइश कहां रह जाती है?
बचपन में एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें कबूतरों का सरदार अपने जूनियर कबूतरों को बार-बार एक ही बात समझाता था- “शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, पर उसमें फंसना नहीं।” लेकिन शिकारी बार-बार आता था, हर बार जाल बिछाता था, दाने डालता था और भूखे कबूतर लोभ संवरण नहीं कर पाते और उसके जाल में फंस ही जाते थे। ऐसा लगता है कि आरएसएस के नेता भी बार-बार उन्हीं कबूतरों की तरह शिकारी राजनीति और मीडिया के जाल में फंस ही जाते हैं।
सत्तारूढ़ खेमे में होने से पूछ भी बढ़ जाती है और पब्लिसिटी भी अधिक मिलती है। लेकिन यह पब्लिसिटी होती है दुधारी तलवार की तरह, इसलिए हर मुद्दे पर बोलना ज़रूरी नहीं होता। ख़ासकर चुनाव के समय में तो बहुत नाप-तौल कर बोलना चाहिए। भई, जिस गली जाना नहीं, उस गली का ख्याल भी मन में लाना ठीक नहीं।