यह RSS की जीत और प्रणब मुखर्जी की हार है!

समरेंद्र सिंह एनडीटीवी, स्टार न्यूज़, ज़ी न्यूज और अमर उजाला में काम कर चुके हैं। अभी मीडिया कंसल्टेंसी कंपनी अनिष्का कम्युनिकेशन्स के निदेशक हैं।

राजनीति में शब्दों से अधिक कर्म का महत्व होता है. लेकिन शब्द और कर्म कितने भी पवित्र हों, नीयत कितनी भी साफ हो, कई बार संदर्भ बदलने से उनका अर्थ वह नहीं रहता जिसकी अपेक्षा की जाती है. मतलब शब्द के मायने कर्म से तय होते हैं. शब्द और कर्म दोनों के अर्थ परिस्थितियां और संदर्भ निर्धारित करते हैं.

यह बातें इसलिए कि नागपुर में हमारे सामने जो कुछ भी घटित हुआ उसे अगर हम अलग से देखें, तो उसमें कुछ भी गलत नजर नहीं आएगा. लगेगा कि कांग्रेस में पूरा जीवन बिताने वाले प्रणब मुखर्जी को वैचारिक तौर पर उनकी विरोधी संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) ने अपने यहां बुलाया और उन्होंने विरोधी का न केवल निमंत्रण स्वीकार किया, बल्कि वहां जाकर उसे आईना दिखाने का साहस किया. और आरएसएस को देखिए कि उसने अपने ही मंच से अपने विरोधी की बातों को धैर्य से सुनने का साहस दिखाया. मतलब दोनों महान हैं. दोनों साधुवाद के पात्र हैं.

मगर बात इतनी सरल नहीं है. नागपुर की घटना का अर्थ पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और संघ प्रमुख मोहन भागवत के शब्द तय नहीं करेंगे. बल्कि उसका अर्थ उन व्यापक परिस्थितियों और घटनाओं से तय होगा जो मौजूदा दौर में हमारे इर्द-गिर्द घट रही हैं और आने वाले समय में घटेंगी. जब तमाम हालात और घटनाओं की कसौटी पर हम प्रणब मुखर्जी के इस कृत्य और उनके शब्दों को तोलते हैं तो अर्थ बदल जाते हैं. लगता है जैसे उन्होंने एक ऐसा गुनाह किया है जिसकी कीमत आने वाले दौर को चुकानी होगी. हर उस शख्स को चुकानी होगी जो भारत गणराज्य के धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और लोकतांत्रिक चरित्र को सुरक्षित रखना चाहता है या उसके लिए संघर्ष कर रहा है.

प्रणब मुखर्जी ने अपने एक कृत्य से सहिष्णुता और असहिष्णुता का सारा नैरेटिव संघ के पक्ष में झुका दिया है. उन्होंने वहां जो कुछ भी कहा है, चाहे वो संघ संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के प्रति उनके दिल से निकले शब्द हों या फिर संघ के सिद्धांतों के विरोध में कहे गए विचार हों – सब कुछ संघ परिवार के समर्थन में नजर आएंगे. यानी प्रणब मुखर्जी ने अपने इस एक कृत्य से उसी कांग्रेस को गहरी चोट दी है, जिसमें रहते हुए वो इस देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचे.

 

इस व्यापक परिदृश्य में समझिए प्रणब मुखर्जी की यात्रा का अर्थ

प्रणब मुखर्जी के इस फैसले को व्यापकता में समझने के लिए मौजूदा हालात पर नजर डालिए:

(1) अभी देश में संघ परिवार के सियासी धड़े भारतीय जनता पार्टी का शासन है और अब तक के उसके सबसे आक्रामक नेता नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं. नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने देश में कांग्रेस मुक्त भारत का सपना सजा रखा है और उसी सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने हर वो हथकंडे अपनाए हैं जो सियासी मर्यादा के तहत गलत कहे जा सकते हैं.

(2) कांग्रेस मुक्त भारत के इस नैरेटिव के बीच हर वो शख्स निशाने पर लिया जा रहा है जो देश की धर्मनिरपेक्षता और विविधता को बचाने के लिए प्रतिबद्ध है और दक्षिणपंथी धड़े की तमाम साजिशों/ हमलों और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच दीवार बन कर खड़ा है.

(3) बीते कुछ वर्षों में पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हिंसक हमले तेज हुए हैं. इसी साल तीन पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. कई पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता आए दिन हत्या की धमकी का सामना कर रहे हैं. महिलाओं को बलात्कार की धमकी दी जा रही है. अभिव्यक्ति की आजादी पर इतना संगठित और व्यापक हमला पहले कभी नहीं देखा गया है.

(4) सिर्फ व्यक्ति ही नहीं संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता भी संकट के दौर से गुजर रही है. यह संकट इतना गहरा है कि सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च संस्थाएं भी इसकी आंच महसूस कर रही हैं.

(5) विरोधियों को डराने-धमकाने के लिए सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों का इतना प्रत्यक्ष और प्रबल दुरुपयोग अतीत के एक-दो उदाहरणों को छोड़ दिया जाए, तो शायद ही कभी देखने को मिला हो.

(6) “आरएसएस ने गांधी की हत्या की थी” – यह बयान देने पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है और उस पर फैसला आना अभी बाकी है.

 

संघ परिवार का कवच बनेगी प्रणब मुखर्जी की नागपुर यात्रा

जब हम इस व्यापक परिदृश्य में प्रणब मुखर्जी की नागपुर यात्रा का विश्लेषण करते हैं तो उसका वह अर्थ नहीं निकलता जो बताने की कोशिश हो रही है. प्रणब मुखर्जी की उस यात्रा के तमाम अर्थ उनकी अब तक की सियासत के विरुद्ध और संघ के नैरेटिव के समर्थन में खड़े नजर आते हैं. एक नजर उन तमाम तर्कों पर जो हमारे सामने अपना सिर उठा रहे हैं या उठाएंगे और देश की सियासी धारा को और अधिक दक्षिणपंथ की तरफ धकेलने की कोशिश करेंगे:

(1) संघ सहिष्णु है. इतना सहिष्णु कि उसने ना केवल प्रणब मुखर्जी जैसे घोर विरोधी को अपना मंच दिया बल्कि उन्हें खुल कर अपनी बात करने का अवसर दिया और उनकी बातों को गौर से सुना.

(2) प्रणब मुखर्जी की नागपुर यात्रा को गलत बताने वाले कांग्रेसी नेता, कांग्रेस और सेक्युलर धड़ा असहिष्णु हैं. कांग्रेसी नेता देश के पूर्व राष्ट्रपति और अपने वरिष्ठतम नेता को फैसले लेने की आजादी तक नहीं देना चाहते और ना ही उनके विवेक पर भरोसा करते हैं.

(3) “आरएसएस ने गांधी की हत्या की थी” – कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का यह बयान राजनीति से प्रेरित है क्योंकि ऐसा वाकई होता तो कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता और देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी संघ के कार्यक्रम में शामिल नहीं होते और संघ प्रमुख के साथ मंच साझा नहीं करते.

(4) आने वाले समय में जब भी सहिष्णुता/असहिष्णुता की बहस होगी और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला होगा तो प्रणब मुखर्जी की यह यात्रा संघ परिवार के कवच का काम करेगी. क्योंकि अब संघ सहिष्णु और विरोधी धड़ा असहिष्णु.

(5) कर्नाटक चुनाव और उसके बाद देश में हुए उप चुनावों में बीजेपी की हार पर चल रही बहस चंद दिनों के भीतर ही अतीत का हिस्सा हो गई है. अब बहस आरएसएस की उदारता और महानता पर होगी. इस पर भी संघ और बीजेपी का यकीन सबको साथ लेकर चलने में है, जबकि विरोधी दलों का नजरिया संकीर्ण है और सियासी छूआछूत की भावना से प्रेरित है.

 

प्रणब मुखर्जी के भाषण में कुछ भी नया नहीं 

अब आते हैं प्रणब मुखर्जी के भाषण पर. यहां अगर यह पूछा जाए कि आखिर भाषण में ऐसा क्या था जिस पर सभी इतना इतरा रहे हैं? क्या उन्होंने संघ की सोच पर कोई प्रत्यक्ष वार किया? क्या उन्होंने खुल कर संघ के कार्यकर्ताओं से कहा कि उनकी सोच देश की बुनियादी परिकल्पना के खिलाफ जाती है? उन्होंने पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमलों का जिक्र किया? क्या उन्होंने संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग की घटनाओं का जिक्र करते हुए संघ विचारकों को यह बताने की कोशिश की कि उनका सियासी धड़ा गलत कर रहा है और उसे कोर्स करेक्शन करना चाहिए? उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया. सिर्फ छायावादी तरीके से संविधान की मूल धारणा की व्याख्या की. मोहन भागवत और उनके भाषण में कोई खास अंतर नहीं था.

 

नागपुर में संघ जीता, दुख यह है कि प्रणब मुखर्जी अकेले नहीं हारे हैं

इसलिए नागपुर में जो कुछ हुआ उसमें जीत संघ की हुई है और प्रणब मुखर्जी हार गए हैं. लेकिन दुख यह है कि वो अकेले नहीं हारे हैं. उनके साथ वह सभी लोग हारे हैं जो ऐसा भारत बनाना चाहते हैं जहां किसी खास विचारधारा, धर्म, पंथ, जाति, क्षेत्र और बोली का आतंक नहीं हो. प्रणब मुखर्जी की बिटिया शर्मिष्ठा मुखर्जी का यह कहना एक हद तक सही है कि नागपुर की तस्वीरें आने वाले समय में बार-बार देखने को मिलेंगी. लेकिन उनका यह कहना सही नहीं है कि शब्द भुला दिए जाएंगे. बल्कि उनकी राय के विपरीत प्रणब मुखर्जी के शब्द भी याद रखे जाएंगे क्योंकि इस बार उनके शब्द संघ के विरोध में नहीं बल्कि समर्थन में नजर आ रहे हैं. मोहन भागवत के शब्दों की प्रतिध्वनि की तरह.

डिस्क्लेमर :- इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। ज़रूरी नहीं कि बहसलाइव.कॉम भी इन विचारों से सहमत हो। इस लेख से जुड़े सभी दावों या आपत्तियों के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं।

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