कश्मीरियत का ढोल पीटना विशुद्ध बेशर्मी है!
रक्तपिपासु राजनीति और टीआरपी-लोलुप मीडिया मिलकर ऐसे-ऐसे जुमले गढ़ लेते हैं, जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता। ऐसा ही एक जुमला है- “कश्मीरियत।”
न जाने किस कश्मीरियत का ढोल ये लोग पीटते रहते हैं? कश्मीरियत तो 27 साल पहले उसी दिन मर गई थी, जिस दिन बाकायदा मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से धमिकयां जारी करके कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ देने के लिए कहा गया। फिर उनके घरों की दीवारों पर भी ऐसी ही धमकी वाले पोस्टर चिपका दिए गए और अंततः तीन लाख से अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ा।
गुजरात दंगे में एक हज़ार लोग मारे गए। दिल्ली दंगे में तीन हज़ार लोग मारे गए। लेकिन कश्मीर में अनगिनत पंडित मारे गए। अनगिनत औरतों के साथ बलात्कार हुआ। अनगिनत लड़कियों की दूसरे धर्म के लोगों के साथ जबरन शादी कराई गई। बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कराया गया। तमाम दंगों के विस्थापित देर-सबेर अपनी जगह वापस बसा दिये गए, लेकिन कश्मीर के विस्थापित आज 27 साल बाद भी नहीं बसाए जा सके हैं। आज़ाद भारत के इस सबसे बड़े विस्थापन के लिए कश्मीर आज तक कभी न रोया, न शर्मिंदा हुआ, न इसे अपने माथे का कलंक माना।
आज हम एक-एक अखलाक और जुनैद के लिए कितना रोते-कलपते हैं, लेकिन कभी इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि उन लाखों पंडितों पर क्या बीती होगी, जब उनके साथ तमाम तरह के अत्याचार हुए और घर-बार-सुख-सम्पत्ति छीनी गई। उस चरम पाशविक घटना के बाद तो कश्मीर में जितनी भी घटनाएं हुई और हो रही हैं, वो सब अब कश्मीरियत की लाश के साथ बलात्कार की विभिन्न घटनाएं हैं।
जब तक कश्मीर उस चरम पाशविक कृत्य का दाग अपने माथे से नहीं धोता और कश्मीरी पंडितों की अपनी-अपनी ज़मीन पर बाइज्जत और सुरक्षित वापसी नहीं कराई जाती, तब तक कश्मीर को मैं एक जहन्नुम ही मानता रहूंगा। और जब कुछ लोग कहते हैं कि जहन्नुम के संस्कार तो बड़े ऊंचे हैं, तो लगने लगता है कि अगर बेशर्मी की पराकाष्ठा कुछ हो सकती है, तो वह यही है।
अगर आप मुझसे पूछेंगे, तो कहूंगा कि आज कश्मीरियत किसी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का नाम नहीं, बल्कि अल्पसंख्यकों के कत्लेआम का नाम है, बलात्कार और लूटपाट का नाम है, अनवरत आतंक और घनघोर सांप्रदायिक कट्टरता का नाम है, आगज़नी, लूटपाट और पत्थरबाज़ी का नाम है। जो सैनिक बाढ़, भूकंप और आतंकी हमलों जैसी त्रासदियों से कश्मीरियों की रक्षा करते हैं, उन्हीं सैनिकों की पीठ में छुरा घोंपने का नाम है कश्मीरियत। भारत जैसे उदार लोकतांत्रिक देश की रोटी खाकर धार्मिक उन्माद के चलते पाकिस्तान जैसे आतंकवादी देश से अपनापन महसूस करने वाली गद्दारी का नाम है कश्मीरियत।
तथाकथित कश्मीरियत के बारे में अभी तक थोड़ा-थोड़ा भ्रम व्याप्त है बॉलीवुड की कुछ पुरानी फिल्मों के चलते। ‘कश्मीर की कली’ और ‘बेमिसाल’ जैसी फिल्मों में कश्मीरियत का ऐसा बढ़-चढ़कर बखान किया गया और ऐसे अच्छे-अच्छे गाने बनाए गए कि लोगों ने मान लिया कि चूंकि धरती का यह टुकड़ा बहुत ख़ूबसूरत है, तो वहां बाकी सब कुछ भी उतना ही ख़ूबसूरत होगा।
अभी महबूबा मुफ्ती के नाम खुले पत्र में भी मैंने कहा कि ‘कश्मीरियत’ के नाम पर किसे बेवकूफ़ बना रही हैं आप? और अगर ‘कश्मीरियत’ सचमुच किसी मानवतावादी संस्कृति का नाम है, तो पहले इसे साबित करके दिखाएं, फिर ढोल पीटें। सलीम जैसी इक्की-दुक्की कहानियां गढ़-गढ़कर सच पर पर्दा डालना बंद करें। अपवाद को नियम नहीं माना जाता। हम मानते हैं कि कश्मीर में भी कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन उन अपवादों के सहारे आप ‘कश्मीरियत’ को डिफाइन नहीं कर सकते।
इसलिए जब भी आतंकी हमले की कोई घटना होती है, तो उसकी निंदा करने की खानापूरी अवश्य करें। अपने को सेक्युलर और संवेदनशील साबित करने की कोशिश भी अवश्य करें, लेकिन ‘कश्मीरियत’ का नाम न लें प्लीज़! आज की तारीख़ में ‘कश्मीरियत’ का महिमामंडन करना विशुद्ध बेशर्मी है!
बिहार में अपराध की दो घटनाएं हो जाएं, तो ‘जंगलराज’ कहने में हमें तनिक भी देर नहीं लगती। यूपी में भी कुछ ऊंच-नीच हो जाए, तो फौरन उसे ‘जुर्म प्रदेश’ घोषित कर देते हैं हम। लेकिन पिछले 27 साल से कश्मीर में इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी अगर ‘कश्मीरियत’ का गौरव-गान चल रहा हो, तो इसे बेशर्मी नहीं तो और क्या कहा जाए, ज़रा ख़ुद ही सोचकर देखिए!
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