कर्नाटक का नाटक कहता है- जैसी करनी, वैसी भरनी
मौजूदा संवैधानिक स्थिति (जितनी मेरी समझ है) और राजनीतिक शुचिता (यहां पर मेरा मतलब मूलतः हॉर्स ट्रेडिंग रोकने भर से है) के लिहाज से यह बेहतर होता कि बीजेपी कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस की सरकार बनने देती, लेकिन ऐसा लगता है कि बीजेपी ने कांग्रेस को हर उस तरीके से सबक सिखाने की ठान ली है, जिस तरीके से उसने 60 साल तक इस देश में लोकतंत्र को हांका है। सत्ता के खेल में नियम-कायदे नहीं होते- कांग्रेस ने यही लकीर खींची है और बीजेपी भी उसी लकीर की फकीर दिखाई दे रही है। यहां यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि कांग्रेस ने अनेक चुनाव अनैतिक तरीके से जीते, देश में 100 के आस-पास राज्य सरकारों को वजह-बेवजह बर्खास्त किया, साम-दाम-दंड-भेद से अपनी सरकारें बनाईं और विरोधियों की सरकारें गिराईं या बनने से रोकीं।
इसलिए, जब इस देश में पहले के लोगों ने कोई आदर्श कायम किया ही नहीं तो बाद के लोग किस आदर्श का पालन करेंगे? संविधान का पहले ही इतना दुरुपयोग हो चुका है कि आज आप उसका कैसा भी उपयोग करना चाहें, उसके लिए मिसाल और समर्थन आपको मिल ही जाएगा। इसलिए कर्नाटक में आज जो हो रहा है, वह भी सही ही है और कांग्रेस के लिए एक सबक है कि इतिहास का पहिया घूमता है और जैसी करनी वैसी भरनी।
एक और रोचक तथ्य है कि मार्च 1995 में गुजरात की पूर्ण बहुमत वाली (182 सीटों में से 121 सीटें) सरकार बनी और केशुभाई पटेल मुख्यमंत्री बने। लेकिन बीजेपी नेता शंकर सिंह बाघेला की महत्वाकांक्षा जागी और केशुभाई के विदेश जाते ही अक्टूबर 1995 में कई विधायकों के साथ उन्होंने बगावत कर दी। उस वक्त केशुभाई को मुख्यमंत्री पद से हटाकर और सुरेश मेहता को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने जैसे-तैसे मामला संभाल लिया। लेकिन सितंबर 1996 में शंकर सिंह वाघेला ने एक बार फिर बगावत करके अपनी पार्टी बना ली। इसके बाद विपक्ष ने सुरेश मेहता सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया, लेकिन मतदान से पहले सदन में विपक्ष ने हिंसा शुरू कर दी। इससे नाराज़ विधानसभा अध्यक्ष ने पूरे विपक्ष को एक दिन के लिए सस्पेंड कर दिया। इसके बाद मतदान हुआ और मेहता सरकार ने सरकार चलाने के लिए ज़रूरी बहुमत हासिल कर लिया। लेकिन एक दिन बाद कांग्रेसी पृष्ठभूमि के राज्यपाल कृष्णपाल सिंह ने केंद्र को रिपोर्ट भेजकर राज्य में संवैधानिक संकट होने की बात कही और राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी। उस वक्त इन्हीं जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी के पिता एचडी देवेगौड़ा कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री थे। फिर क्या था? सुरेश मेहता की सरकार बर्खास्त करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इसके करीब एक महीने बाद ही शंकर सिंह बाघेला ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली। यानी इसी कांग्रेस और जेडीएस (तब जनता दल) ने उस वक्त बीजेपी के साथ एक अनैतिक अलोकतांत्रिक असंवैधानिक खेल खेला था। इत्तेफ़ाक से कांग्रेस और देवेगौड़ा के खेल से जिस वक्त बीजेपी की सरकार गिरी, उस वक्त यही वजुभाई वाला गुजरात बीजेपी के अध्यक्ष थे, जो आज कर्नाटक के राज्यपाल हैं।
यानी देवेगौड़ा जी और उनकी पार्टी जेडीएस के लिए भी वही सबक है, जो कांग्रेस के लिए है- इतिहास का पहिया घूमता है और जैसी करनी वैसी भरनी।
चूंकि इस हम्माम में सभी नंगे हैं, इसलिए किसी एक को नंगा कहना बाकी सभी नंगों का अपमान होगा और मैं किसी का अपमान करना नहीं चाहता। -अभिरंजन कुमार
अब राज्यपाल वजुभाई वाला कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी बीजेपी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर चुके हैं, इस बात के बावजूद कि कांग्रेस और जेडीएस के चुनाव-बाद गठबंधन के पास प्रत्यक्ष तौर पर बहुमत से अधिक सीटें थीं। अब ऐसे हालात में नैतिकता की दुहाई का क्या मतलब? नैतिकता तो कांग्रेस भी कहां दिखा रही है? जब जनता ने खारिज कर दिया, तो जनता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ एक पोस्ट-पोल अलायंस बनाकर उसपर राज करने का प्रयास कर रही है। यहां यह साफ़ कर दूं कि मेरी नज़र में पोस्ट-पोल अलायंस भी अपने आप में अनैतिक ही होते हैं, क्योंकि इन्हें जनता की मंजूरी नहीं होती है और दूसरे शब्दों में ये जनता की आंखों में धूल झोंककर कायम किए जाते हैं।
इसलिए, अभी तो लगता है कि किसी के समर्थन या विरोध की भावना से ऊपर उठकर बस इस खेल का आनंद लेना चाहिए। येदियुरप्पा जी के पास बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन होंगे। कांग्रेस इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गई है। इस बीच अगर सुप्रीम कोर्ट से कांग्रेस के अनुकूल कोई फैसला नहीं आया, तो इन 15 दिनों में क्या होगा, यह हम सबको मालूम है। लेकिन जो भी होगा, वह वही होगा, जो तमाम पार्टियां पहले भी करती रही हैं और मौका मिलने पर आगे भी करती रहेंगी।
चूंकि इस हम्माम में सभी नंगे हैं, इसलिए किसी एक को नंगा कहना बाकी सभी नंगों का अपमान होगा और मैं किसी का अपमान करना नहीं चाहता।
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