चीफ जस्टिस महाभियोग मामला: इन 10 बिन्दुओं से एक बार फिर खुल गई कांग्रेस की मलिन राजनीति की पोल
कांग्रेस के दो राज्यसभा सांसद चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव को उपराष्ट्रपति द्वारा खारिज किए जाने को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में गए थे। महाभियोग प्रस्ताव पर छह दलों के 64 सांसदों के हस्ताक्षर थे, जबकि सिर्फ़ कांग्रेस के, वो भी केवल दो सांसद ही कोर्ट गए, और उन्हें कोर्ट ले जाने वाले तीसरे सांसद भी कांग्रेस के ही कपिल सिब्बल हैं, जिनकी भूमिका शुरू से ही इस पूरे मामले में संदिग्ध रही है।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक तरफ कांग्रेस के सांसद सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े पर थे, दूसरी तरफ उस संविधान पीठ पर ही सवाल खड़े कर रहे थे, जो उनके मामले की सुनवाई करने के लिए बैठी थी। वे संविधान पीठ से उसके गठन का आधार पूछ रहे थे। दलील यह थी कि जिन पांच जजों की बेंच मामले की सुनवाई कर रही है, उसका गठन भी चीफ जस्टिस ने ही किया है। वे संविधान पीठ के गठन के ऑर्डर की कॉपी देखना चाहते थे।
- मतलब कि कांग्रेस के नेता सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े पर थे, लेकिन उन्हें सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा नहीं था। उनकी मंशा ऐसी प्रतीत हो रही थी, जैसे मामले की सुनवाई करने के लिए संविधान पीठ के गठन का फैसला या तो कांग्रेस मुख्यालय से तय होना चाहिए था या फिर कांग्रेस द्वारा चुने गए किसी जज के द्वारा तय होना चाहिए था।
- हैरानी तो इस बात की भी है कि यही लोग जब सोमवार को अपनी याचिका लेकर जस्टिस चेलमेश्वर के सामने थे, तब इनके सामने कोई नैतिक संकट नहीं था, जबकि जस्टिस चेलमेश्वर स्वयं इस मामले में पार्टी हैं, क्योंकि उन्हीं के नेतृत्व में तीन अन्य जजों द्वारा दीपक मिश्रा के खिलाफ़ कुछ आरोप लगाए जाने के बाद महाभियोग प्रस्ताव की बुनियाद तैयार हुई।
- एक तरफ ये लोग चाहते थे कि दीपक मिश्रा हर तरह से मामले की सुनवाई से दूर रहें, जो कि उचित है और उसपर हमें एतराज भी नहीं है। लेकिन दूसरी तरफ इन लोगों की यह भी मंशा थी कि वही चार जज उनकी याचिका की सुनवाई करें, जिन्होंने दीपक मिश्रा पर आरोप लगाए थे, यह सरासर अनुचित है और इससे कांग्रेस की बेईमान नीयत का पता चलता है।
- चूंकि वरीयता क्रम में सुप्रीम कोर्ट के पहले पांच जज मामले से कहीं न कहीं जुड़े हुए थे, इसलिए पूरी पारदर्शिता बरतते हुए छठे नंबर के जज से लेकर पांच जजों की संविधान पीठ बनाई गई। मामले की सुनवाई का इससे अधिक न्यायसंगत फॉर्मूला दूसरा कुछ और नहीं हो सकता था, फिर भी कांग्रेस को एतराज था, तो उसकी नीयत की खोट को समझना मुश्किल नहीं है।
- मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस एके सीकरी ने बेहद तर्कसंगत बात कही- “CJI मामला नहीं सुन सकते, क्योंकि मामला उनसे जुड़ा है। उनके बाद के 4 जज भी मामले से कहीं न कहीं जुड़े हैं। ऐसे में सुनवाई आखिर कोई तो करेगा, आपको सुनवाई पर क्यों एतराज़ है?’ जस्टिस सीकरी का यह तर्कपूर्ण सवाल कांग्रेस की नीयत की पोल खोल देता है।
- जिन 64 सांसदों ने महाभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए थे, उनमें से एक कपिल सिब्बल वकील के रूप में भी जिरह कर रहे थे। यह सीधे तौर पर कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंट्रेस्ट का मामला बनता था। जब मामले से जुड़े जज मामले की सुनवाई नहीं कर सकते, तो मामले से जुड़ा व्यक्ति मामले में जिरह कैसे कर सकता है?
- महाभियोग प्रस्ताव के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट के पहले पांच जज मामले की सुनवाई कर नहीं सकते थे। बाद के पांच जजों ने सुनवाई शुरू की, तो कांग्रेस ने उनपर भी सवाल खड़े कर दिए। इस तरह कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के पहले 10 जजों को कठघरे में खड़ा कर दिया। इस वक्त सुप्रीम कोर्ट में कुल हैं ही 24 जज। सोचिए कि कांग्रेस देश की इस सर्वोच्च न्यायिक संस्था के साथ कैसा खिलवाड़ कर रही है?
- विश्वस्त सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, इस मामले में कपिल सिब्बल की भूमिका चीफ जस्टिस के खिलाफ चार जजों को भड़काने से लेकर अंत तक संदिग्ध रही है। सच्चाई दरअसल यह है कि वह भारत के प्रधान न्यायाधीश से कोई पर्सनल खुन्नस निकाल रहे हैं और कांग्रेस पार्टी उनकी इस व्यक्तिगत लड़ाई को उसूलों की लड़ाई की तरह पेश करने का अपराध कर रही है।
- अगर कांग्रेस पार्टी में ईमानदारी होती, तो वह इस बात का पता लगाती कि आखिर कपिल सिब्बल सीजेआई के पीछे क्यों पड़े हैं और पता लगाने के बाद उन्हें पार्टी से निकालकर अपनी पार्टी की इज्जत बचाती, न कि चीफ जस्टिस के ख़िलाफ़ महाभियोग लाकर पूरी न्यायपालिका को बेइज्जत करने की कोशिश करती।
- अंत में, क्या यह कहने की ज़रूरत है कि कपिल सिब्बल ने व्यक्तिगत खुन्नस में और कांग्रेस ने अयोध्या मामले की सुनवाई को डिस्टर्ब करने की नीयत से चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को संदिग्ध बनाने की कोशिश की। कांग्रेस की सांप्रदायिक सियासत को समझना मुश्किल नहीं है कि उसे लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा तो कर्नाटक विधानसभा चुनाव से ठीक पहले देना था, लेकिन राम मंदिर पर फैसला लोकसभा चुनावों के बाद चाहिए था। मतलब साफ़ है कि कांग्रेस धर्म और धार्मिक मसलों को केवल अपने चुनावी फ़ायदे के हिसाब से इस्तेमाल करती चली आ रही है, चाहे इसका देश और विभिन्न समुदायों की एकजुटता और भाईचारे पर जो भी असर पड़े।
ऐसे में, मुझे लगता है कि हम बीजेपी को सांप्रदायिकता के आरोप से बरी नहीं कर सकते, लेकिन तमाम अनुभवों के तर्कसम्मत और तथ्यात्मक विश्लेषण के बाद इस नतीजे पर अवश्य पहुंच सकते हैं कि इस देश में सबसे अधिक सांप्रदायिक पार्टी कोई अगर है, तो वो है कांग्रेस।
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