समलैंगिकों पर फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने नहीं किया भावी ख़तरों का आकलन

अभिरंजन कुमार जाने-माने लेखक, पत्रकार व मानवतावादी चिंतक हैं।

बालिग समलैंगिकों को सहमति से संबंध बनाने का अधिकार मिलना सतही तौर पर प्रगतिशीलता और मानवाधिकारों का झंडा बुलंद करने वाला फैसला दिखाई दे सकता है, लेकिन जितना मैं समझ पा रहा हूं, उसके मुताबिक, ऊपरी तौर पर सही दिखने वाले इस फैसले के इतने सारे गलत परिणाम निकलेंगे, जिनके बारे में शायद सुप्रीम कोर्ट ने भी अभी कल्पना नहीं की है।

हम हर रोज़ सैकड़ों लोगों से मिलते हैं और अपने जीवन में अब तक लाखों लोगों से वन-टू-वन मिल चुके होंगे, लेकिन आज तक मुझे एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जिसने समलैंगिक रिश्तों को कानूनी वैधता न होने के कारण चिंता जताई हो। न ही आज तक मुझे ऐसा कोई व्यक्ति मिला, जिसे समलैंगिक रिश्ते बनाने के कारण जेल हुई हो।

फिर भी यदि मान लिया जाए कि 135 करोड़ लोगों के देश में ऐसे रिश्ते बनाने के चलते चंद लोगों को अपराधी माना भी गया होगा, तो भी धारा 377 कमोबेश एक मृतप्राय कानून ही था, जिसका उपयोग न के बराबर था, लेकिन इसके ख़ौफ़ या दबाव के कारण समाज में अप्राकृतिक रिश्तों के चलन और कारोबार को काबू में रखने में सहायता मिलती थी।

यूं तो फैसले में यही कहा गया है कि दो “वयस्क” समलैंगिक अगर “सहमति” से संबंध बनाएंगे तो यह अपराध नहीं होगा, लेकिन क्या “वयस्क” और “सहमति” इन दो शब्दों में निहित पाबंदियों का पूरा-पूरा पालन सुनिश्चित कराया जाना इतना आसान है? क्या इस आज़ादी की आड़ में बड़े पैमाने पर इसका दुरुपयोग शुरू नहीं हो जाएगा?

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इस बात की चिंता तो है कि दो वयस्क लोगों के निजता के अधिकार को ठेस नहीं पहुंचे, लेकिन इस बात की ज़रा भी चिंता नहीं है कि उन्हें यह अधिकार देने से समाज में ऐसी प्रवृत्ति अगर तेज़ी से बढ़ने लगेगी तो क्या-क्या हो सकता है और कितनी तरह की जटिलताएं पैदा हो सकती हैं।

ये हैं संभावित ख़तरे

फैसले के निम्नलिखित दुष्परिणामों के अंदेशे मुझे सिहरा रहे हैं-

(1) इस फैसले से समाज में अनैतिकता, अराजकता और अप्राकृतिक किस्म के यौन अपराधों को बढ़ावा मिलेगा। मौजूदा विपरीत-लिंगी यौन अपराधों के मामलों में इन समलैंगिक अपराधों के जुड़ जाने से स्थिति और भयावह हो जाएगी।

(2) इससे समाज में समलैंगिकता का अप्राकृतिक चलन बढ़ेगा और समलैंगिक देह व्यापार का रैकेट भी फलेगा-फूलेगा। मुमकिन है कि आने वाले समय में समलैंगिकों के भी कोठे विकसित हो जाएं या फिर बड़े पैमाने पर एस्कॉर्ट सर्विसेज भी शुरू हो जाएं।

(3) समलैंगिक रिश्तों को कानूनी मान्यता मिलने के बाद से अब स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वाले कच्ची उम्र के लड़के-लड़कियों पर समलैंगिक देह-व्यापार के गिद्धों की नज़र गड़ जाएगी और वे उन्हें बरगलाकर, ब्लैकमेल कर, डराकर या ब्रेन वॉश करके समलैंगिकता के नारकीय कारोबार में ढकेलने का प्रयास कर सकते हैं।

(4) अब तक समाज में अधिकांशतः महिलाओं पर पुरुष द्वारा बलात्कार की घटनाएं ही सामने आती रही हैं, लेकिन समलैंगिकता को लेकर इस नयी कानूनी स्थिति के बाद से पुरुषों द्वारा बच्चों और पुरुषों से एवं महिलाओं द्वारा बच्चियों और महिलाओं से बलात्कार के मामले भी सामने आ सकते हैं। यानी आने वाले समय में बलात्कारियों की लिस्ट में महिलाएं भी शामिल हो जाएं तो अचरज नहीं।

(5) मुमकिन है कि आने वाले दिनों में हम यह भी सुनें कि फलाने लड़के को वीडियो बनाकर या फोटो खींचकर लंबे समय से ब्लैकमेल किया जा रहा था। और तो और, लड़कियों के मामले में पहले से ही चले आ रहे ऐसे अपराधों की संख्या और बढ़ जाएगी, क्योंकि उनके साथ ऐसा अब सिर्फ़ हवसी पुरुष ही नहीं, हवसी महिलाएं भी कर सकती हैं।

(6) जब समलैंगिकता का रोग एक बार समाज के एक तबके को लग जाएगा, तो वह बालिग-नाबालिग और सहमति-असहमति नहीं देखेगा, जैसे कि आज रेपिस्ट मानसिकता के लोग लड़कियों के मामले में बालिग-नाबालिग और सहमति-असहमति नहीं देखने लगते।

(7) नियमित रूप से अपने पार्टनर बदलते रहने वाले धनाढ्य और अय्याश किस्म के स्त्री-पुरुष हवस के इस नए प्रयोग में गरीबों के बच्चे-बच्चियों और कच्ची उम्र के घरेलू नौकरों-नौकरानियों को भी अपना शिकार बना सकते हैं।

(8) देह-व्यापार के लिए अब तक अधिकांशतः बच्चियों और लड़कियों को ही अगवा किया जाता या खरीदा-बेचा जाता रहा है, लेकिन इस फैसले के बाद छोटे बच्चे और लड़कों के अगवा किए जाने और खरीदे-बेचे जाने की घटनाएं भी बढ़ सकती हैं। मेल चाइल्ड ट्रैफिकिंग और मेल एडल्ट ट्रैफिकिंग के मामले स्थिति को और भयावह बना सकते हैं।

(9) जैसे आज प्रभावशाली और पैसे वाले बलात्कारी बलात्कार करके भी कानून के ढाल का ही इस्तेमाल करके बच जाते हैं, उसी तरह कल को समलैंगिक अपराधी भी कानून का इस्तेमाल करके बच जाया करेंगे। सहमति-असहमति और बालिग-नाबालिग होने का कानूनी फ़र्क़ उन्हें अपराध करने और न्याय को मैनेज करने से रोकने में अधिकांशतः असफल ही साबित होगा।

(10) हमारी जांच एजेंसियां और अदालतें आज विपरीत-लिंगी बलात्कार के बेशुमार मामलों को ही समय से सुलझा नहीं पातीं, तो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से जब समाज में समलैंगिकता के चलन को बढ़ावा मिलेगा, तो समलैंगिक बलात्कारों के नए-नए मामलों का बोझ भी जांच एजेंसियों और अदालतों पर आने लगेगा। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि पहले से ही चरमराई हुई न्याय व्यवस्था और चरमरा जाएगी।

(11) जैसे-जैसे समलैंगिकता का चलन बढ़ेगा, समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों या पति-पत्नी संबंधों पर इसके दुष्परिणाम दिखाई देने लगेंगे। अनेक मामलों में परिवारों के टूटने का भी खतरा रहेगा। समाज में समलैंगिक पति से परेशान पत्नियों और समलैंगिक पत्नियों से परेशान पतियों की संख्या में इजाफ़ा होगा।

(12) पोर्न साहित्य और वीडियो का दायरा और कारोबार बढ़ेगा, जिससे समाज, खासकर युवा-वर्ग पर इसका काफी बुरा असर पड़ सकता है।

(13) इतना ही नहीं, आने वाले समय में अनेक लोगों को समलैंगिक बलात्कार के झूठे आरोप लगाकर भी फंसाया जा सकता है, जैसे कि अभी विपरीत-लिंगी बलात्कार के मामले में फंसाए जाने की घटनाएं सामने आती रहती हैं।

(14) बलात्कार को अब सिर्फ़ बलात्कार लिखने से काम नहीं चलेगा। उसे समलैंगिक या विपरीत लिंगी बलात्कार में डिफाइन करना पड़ेगा, जैसे बार-बार मुझे इस लेख में इन शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ा है।

कुल मिलाकर, सुप्रीम कोर्ट ने प्रगतिशीलता दिखाने के चक्कर में देश को दुर्गतिशीलता और नैतिक-चारित्रिक-सांस्कृतिक पतन की तरफ ढकेल दिया है।

समलैंगिकता की वकालत करने वाले मुख्यतः चार तरह के

समलैंगिकों के कथित अधिकारों को लेकर काम करने वाले अधिकांश लोग अब तक समाज में प्रायः अदृश्य ही रहे हैं, क्योंकि वे ऐसे लोग हैं ही नहीं, जिन्हें सामाजिक स्वीकृति दी जा सके। मेरी राय में वे मुख्य रूप से चार तरह के लोग हैं-

(1) मनोरोगी, जिन्हें इलाज की ज़रूरत है।
(2) अतृप्त और अय्याश, जिनका कोई इलाज नहीं है।
(3) विदेशी फंड से चलने वाले एनजीओ, जो भारतीय समाज और संस्कृति को भ्रष्ट और ध्वस्त करने की मंशा रखते हैं।
(4) तरह-तरह के सेक्स रैकेट चलाने वाले।

सरकार को रिव्यू पीटीशन डालना चाहिए

यह बेहद अफसोस की बात है कि आज़ादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी भारत के सुप्रीम कोर्ट को इस बात की चिंता नहीं है कि हर साल हज़ारों की तादाद में होने वाले विपरीत-लिंगी बलात्कारों के मामलों में कैसे जल्द जांच और इंसाफ़ की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए, लेकिन इस बात की चिंता अवश्य है कि नगण्य संख्या में मौजूद समलैंगिकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा।

इसलिए केंद्र सरकार से मेरी गुज़ारिश है कि वह सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के ख़िलाफ़ अविलंब रिव्यू पीटीशन डाले और फिर भी यदि इस फैसले को निरस्त नहीं किया जाता है तो संसद में बिल लाकर इस फैसले को निरस्त कर दे।

सवाल है कि यदि एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग को रोकने से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के वाजिब फैसले को निरस्त किया जा सकता है, तो इस गैर-वाजिब फैसले को तो अवश्य ही निरस्त किया जाना चाहिए। ख़ास कर यह देखते हुए कि इस फैसले से पहले स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने भी 2013 में समलैंगिकता को अपराध माना था और अपने 2014 में इस फैसले के ख़िलाफ़ रिव्यू पीटीशन तक को ख़ारिज कर दिया था।

इन्हें भी पढ़ें-

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *