पाकिस्तान के एजेंट की तरह लगने लगे हैं शांति के ‘कबूतर!’
-अभिरंजन कुमार, वरिष्ठ पत्रकार
यह अच्छी बात है कि गुरमेहर के मामले में बीजेपी के नेताओं को अपनी भूल का अहसास हुआ है और उनके बयान सुधरे हैं। मैंने पहले ही कहा था कि अपने से छोटों का मखौल उड़ाकर हम बड़े नहीं हो जाते। जब साक्षी महाराज और आजम ख़ान जैसे लोग इस देश में जो मन आए, बोल सकते हैं, तो गुरमेहर को भी हक़ है कि जितना वह समझती-बूझती है, उसके हिसाब से अपनी बात रखे।
जहां तक भारत और पाकिस्तान के बीच शांति का सपना है, तो वह हम सब लोगों का अपना रहा है, लेकिन समय के साथ यह बार-बार टूटा है। जब दो व्यक्ति या देश झगड़ा कर रहे हों, तो हमेशा यह सोच लेना सही नहीं है कि इसके लिए दोनों ही ज़िम्मेदार होते हैं। अक्सर अपने व्यावहारिक जीवन में भी हम देखते हैं कि अगर कोई व्यक्ति स्वभावतः झगड़ालू हो, तो वह सबसे झगड़ा मोल लेता रहता है और कई बार शांतिप्रिय लोग भी मजबूरन उससे झगड़े में उलझ जाते हैं।
भारत-पाकिस्तान के बीच भी यही स्थिति है, जो गुरमेहर समझेगी, लेकिन समय के साथ समझेगी। 20 साल की उमर में उसे सब कुछ समझा देने की मंशा रखने वाले लोगों के बारे में भी कहना पड़ेगा कि वे अभी वयस्क नहीं हो पाए हैं। बहरहाल, विकृत वामपंथियों की तरह जो लोग कश्मीर मसले का सरलीकरण कर कहते हैं कि वहां सेना लोगों के अधिकार कुचल रही है, वे या तो शातिर हैं या बचकाने हैं।
हम जानते हैं कि पाकिस्तान का जन्म ही धर्मांधता, कट्टरता और भारत से नफ़रत की बुनियाद पर हुआ है। कश्मीर पर पहला आक्रमण भी उसी ने किया और पिछले 70 साल में कई प्रत्यक्ष और परोक्ष युद्धों के ज़रिए वह कश्मीर घाटी से बहुसंख्यक समुदाय को भगाने और वहां आतंक फैलाने में काफी हद तक सफल रहा है। पाकिस्तान को भारत से दोस्ती कर शांति और समृद्धि नहीं, बल्कि भारत को लगातार डिस्टर्ब कर सैडिस्टिक प्लेज़र चाहिए। ऐसी स्थिति में भारत के पास विकल्प काफी सीमित हो जाते हैं।
जब हम कश्मीर के लोगों के मानवाधिकारों की बात करते हैं, तो हमें मुकम्मल रूप में इसकी चर्चा करनी होगी। हमें उन तीन लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों के मानवाधिकारों की चर्चा भी करनी होगी, जिन्हें रातों-रात मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से चेतावनी देकर, दरवाज़ों पर पोस्टर चिपकाकर घाटी से या तो खदेड़ दिया गया या मार दिया गया। आज हम कश्मीर के जिन भी लोगों के मानवाधिकारों की बात कर रहे हैं, उनसे कहीं ज़्यादा दुख, तकलीफ़ और विपत्ति उनके ऊपर गुज़री है। उनकी संपत्ति गई। घर-बार गया। बहन-बेटियों की इज्ज़त गई। धर्म गया। आस्था के स्थल गए। जानें गई। वे आज तक विस्थापित हैं। उनमें भी हज़ारों नौजवान ऐसे हैं, जो गुरमेहर की ही तरह अपने बड़ों के प्यार से महरूम रह गए।
इसलिए, कश्मीर के लोगों के मानवाधिकारों की बात करते हुए हमें इस बात पर भी गहनता से विचार करना होगा कि क्या उन लोगों के भी मानवाधिकार हो सकते हैं, जो आतंकवाद के दानव के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं और जिनके दिमाग में एक बार फिर से भारत के बंटवारे का ख्याल पल रहा है? और बंटवारे के इस विचार के पीछे कोई ठोस तर्क या भौगोलिक स्थिति नहीं, बल्कि धर्मांधता, कट्टरता, आतंकवाद और पड़ोसी देश के पापी इरादे मात्र ही कारक हैं।
अभी पाकिस्तान में एक आतंकवादी हमला हुआ था, जिसके बाद पाकिस्तान की सेना और पुलिस ने 24 घंटे के भीतर सौ से अधिक लोगों को आतंकवादी कहकर मार डाला। न कोई सबूत, न कोई ट्रायल। जिसे समूची दुनिया आतंकवादी कहती है, उसे पाकिस्तान आतंकवादी मानने को तैयार नहीं, और जिनके आतंकवादी होने पर दुनिया को शक है, उन सैकड़ों लोगों को आतंकवादी कहकर पाकिस्तान ने एक झटके में मार डाला, जैसे वे इंसान नहीं, बकरीद की कुर्बानी के बकरे हों।
ज़ाहिर है, मानवाधिकार का हनन इसे कहते हैं, जो पाकिस्तान ने अभी अपने सैकड़ों नागरिकों का कत्ल करके किया है। न कि इसे कहते हैं कि आप सेना पर पत्थर फेंकते रहें, आतंकवादियों को आश्रय, सुरक्षा व सहयोग देते रहें, पर लगातार अपने ऊपर चोट खाकर भी, अपने जवानों को खोकर भी, बहुत मजबूर होने पर ही सेना आपके ऊपर बल-प्रयोग करती हो, फिर भी यह ख्याल रहता हो कि किसी को अधिक नुकसान न पहुंचे और नुकसान पहुंचने पर सरकारी खर्चे पर उनका इलाज कराया जाता हो।
अब अगर कोई आतंकवाद का साथ दे और बार-बार सेना के जवानों के धैर्य को ललकारे, तो उससे तो हम सहानुभूति करें, लेकिन इक्का-दुक्का सच्चे-झूठे आरोपों के आधार पर सेना को रेपिस्ट, हत्यारा और मानवाधिकारों का हनन करने वाला बताएं- यह तो हद है! इसलिए, जो कहते हैं कि घाटी में सेना का क्या काम- वे कोई शांति-प्रेमी लोग नहीं, बल्कि ऐसे शातिर हैं, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आतंकियों की मदद करना चाहते हैं। दुख की बात है कि आतंकियों की यह मदद वे राजनीतिक विचारों की आड़ में करते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कश्मीर हमारा समस्याग्रस्त (विवादित नहीं) क्षेत्र है और यह समस्या पाकिस्तान की तरफ़ से पैदा की जा रही है। इस समस्या का हल हमारे हाथ में कम, पाकिस्तान के हाथ में ज्यादा है, क्योंकि सारा झगड़ा उसी का खड़ा किया हुआ है। जब तक वह आतंकवाद की सप्लाई करता रहेगा, तब तक मजबूरन अपनी सेना हमें वहां रखनी ही पड़ेगी। हमारी सेना बॉर्डर तक सिमटकर भी रह सकती है, बशर्ते कि सीमा के अंदर किसी आतंकवादी को पनाह, सुरक्षा और सहयोग न मिले। लेकिन जब आतंकवादियों को घरों में पनाह मिलेगी, बस्तियों में सुरक्षा मिलेगी, लोगों से सहयोग मिलेगा, तो सेना को तो घरों और बस्तियों में जाना ही पड़ेगा। आख़िर इसका विकल्प क्या है?
इसलिए, मानवाधिकार और आज़ादी जैसे पवित्र शब्दों को हिंसा और नफ़रत का औजार बना देने वाले विकृत-बुद्धि लोगों को इसके बारे में भी तफ़सील से बताना चाहिए। उन्हें बताना चाहिए
- कि पाकिस्तान के साथ शांति के लिए क्या हमें कश्मीर को थाली में सजाकर पाकिस्तान को सौंप देना चाहिए?
- कि पाकिस्तान को थाली में सजाकर कश्मीर दे देने से क्या कश्मीरियों के मानवाधिकार सुरक्षित हो जाएंगे और उन्हें आज़ादी मिल जाएगी?
- कि अगर हम अपने हिस्से वाले कश्मीर को आज़ादी दे दें, तो पाकिस्तान के हिस्से वाले कश्मीर की आज़ादी का क्या होगा?
- कि अगर हम अपने हिस्से वाले कश्मीर को आज़ाद कर देंगे, तो पाकिस्तान और आतंकवादियों के हमलों से उन्हें कौन बचाएगा?
- कि कश्मीरियों के सामने इसके सिवा विकल्प क्या हैं कि वे या तो भारत के साथ रहें या फिर पाकिस्तान के साथ?
क्या वे भूल गए हैं कि अगर कश्मीरियों के सामने भारत और पाकिस्तान- दोनों से स्वतंत्र रहने का तीसरा विकल्प होता, तो आज यह समस्या ही नहीं होती। जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ, तब कश्मीर आज़ाद ही तो था। उसकी आज़ादी पर हमला किसने किया? किसके हमले से बचने के लिए वहां के महाराजा हरि सिंह को अपनी रियासत का भारत में विलय कराना पड़ा? क्या यह एक ऐतिहासिक तथ्य नहीं है कि कश्मीर की आज़ादी पाकिस्तान ने छीनी और भारत ने सिर्फ़ उसकी रक्षा की और आज तक उसकी रक्षा ही कर रहा है। इसलिए, अमन के जो “कबूतर” भारत से कश्मीर की आज़ादी की मांग करते हैं, पहले उन्हें पाकिस्तान से कश्मीर को आज़ाद करा लेना चाहिए।
फिर उन्हें इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि अगर 0.000001 प्रतिशत भी कश्मीर की भारत और पाकिस्तान दोनों से “आज़ादी” की कोई सूरत बन सकती है, तो क्या वह “आज़ाद” कश्मीर भी पाकिस्तान की ही तरह आतंक और कट्टरता का पोषक नहीं होगा? क्या वह भी पाकिस्तान की ही तरह एक धर्मांध राज्य नहीं होगा, जहां न तो अल्पसंख्यकों के अधिकार और संपत्तियां सुरक्षित रहेंगी, न उनके पूजा-स्थल सुरक्षित रहेंगे, न उनकी बहन-बेटियों की आबरू सुरक्षित रहेगी? उस “आज़ाद” स्टेट में भी अल्पसंख्यकों के सामने अपना धर्म बदलने या फिर मरने या पलायन करने के सिवा क्या विकल्प होंगे?
और फिर, इस बात की भी क्या गारंटी है कि कश्मीर को “आज़ाद” करने के बाद हमारे अन्य सीमावर्ती हिस्सों में भी पाकिस्तान अशांति फैलाना जारी नहीं रखेगा, वहां भी उसके आक्रमण नहीं होने लगेंगे, वहां से भी लोगों को पंडितों की ही तरह पलायन नहीं करना पड़ेगा? इसलिए, जिन लोगों ने आईएसआई और पाकिस्तान के आतंकवादियों से ठेका ले लिया है एवं शांति और मानवाधिकार जैसे पवित्र शब्दों की आड़ में उनका सहयोग कर रहे हैं, हमारी सेना को गालियां दे रहे हैं, भारत राष्ट्र को ज़लील कर रहे हैं, हम उनकी बात नहीं करते, लेकिन किसी दिन गुरमेहर या उस जैसे दूसरे नौजवान अगर खुले मन से समस्या को समझना चाहे, तो उन्हें ज़रूर समझाना चाहेंगे।
उन्हें समझाना चाहेंगे कि “युद्ध” के लिए भारत और पाकिस्तान दोनों नहीं, बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ पाकिस्तान ज़िम्मेदार है। उन्हें समझाना चाहेंगे कि यह एक व्याख्या ज़रूर हो सकती है कि आपके पिता को “युद्ध” ने मारा, लेकिन वह “युद्ध” पाकिस्तान ने छेड़ रखा है, भारत ने नहीं। भारत तो सिर्फ़ अपनी रक्षा कर रहा है और आपके पिता ने भी हम 125 करोड़ हिन्दुस्तानियों की रक्षा के पवित्र मकसद से ही अपने प्राण की आहुति दी। वे युद्ध-उन्मादी नहीं थे। वे मजबूर नहीं थे। वे पागल नहीं थे। किसी ने जबरन उन्हें सेना में शामिल नहीं किया। वह अपनी इच्छा से इसमें शामिल हुए और यह जानते हुए शामिल हुए कि इसमें हमेशा जान का ख़तरा रहेगा।
उन्हें हम यह भी समझाना चाहेंगे कि मानवतावादी लोग सृष्टि के आरंभ से शांति का सपना देखते रहे हैं और युद्ध से नफ़रत करते रहे हैं, इसके बावजूद युद्ध मानवीय सभ्यता की एक कड़वी सच्चाई है। जिस “धर्म” को हमने दुनिया में सबसे पवित्र चीज़ माना, वह भी युद्धों से भरा पड़ा है और उसके नाम पर आज भी कुछ सिरफिरे लगातार युद्धरत हैं। अगर कोई किसी मुल्क को तोड़ना चाहेगा या नए मुल्क का सपना देखेगा या एक मुल्क से निकलकर दूसरे मुल्क में जाने का मंसूबा पालेगा, तो चाहे-अनचाहे हम सबको फिर से एक युद्ध में जाना ही पड़ेगा।
इसलिए, जो लोग ख़ुद को अमन का कबूतर बताते हैं, उन्हें चाहिए कि वह कश्मीर की आज़ादी की मांग का समर्थन और इसकी आड़ में आतंकवादियों और अलगाववादियों का साथ देना बंद करें। अगर वे सचमुच शांति चाहते हैं तो उन्हें कश्मीरी नौजवानों के बीच जाकर, आतंकवाद के रास्ते पर जा रहे नौजवानों के बीच जाकर, धर्मांध और कट्टर लोगों के बीच जाकर मानवता का पाठ पढ़ाना चाहिए। उन्हें बताना चाहिए कि भारत को स्थिर और मज़बूत करने से ही उनकी स्थिरता और मज़बूती सुनिश्चित होगी। उन्हें बताना चाहिए कि पाकिस्तान जैसे पापी देश के साथ आज कोई नहीं रहना चाहता- न सिंध, न बलूचिस्तान, न गुलाम कश्मीर।
शांति के कबूतरों को पाकिस्तान के पापी मंसूबों पर चोट पहुंचानी चाहिए, न कि उसका एजेंट बनकर भारत को अस्थिर करने की साज़िश रचनी चाहिए।