हिन्दुत्व के नाम पर हिंसा का समर्थन देश को सचमुच में ‘हिन्दू पाकिस्तान’ बना देगा!

अभिरंजन कुमार जाने-माने लेखक, पत्रकार और मानवतावादी चिंतक हैं।

पिछले महीनों में देश में मॉब लिंचिंग की कई घटनाओं, उनपर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी, और फिर झारखंड में एक राजनीतिक दल/विचार से कथित रूप से जुड़े गली के कुछ गुंडों द्वारा स्वामी अग्निवेश की पिटाई से विचलित हूं। इससे भी अधिक विचलित इस बात से हूं कि उस राजनीतिक दल/विचार से जुड़े कुछ बड़े बुद्धिजीवियों ने उल्टे स्वामी अग्निवेश का तरह-तरह से कैरेक्टर असेसिनेसन करते हुए उनकी पिटाई करने वाले गली के उन गुंडों का पक्ष लिया है। सोशल मीडिया के उन पागलों की तो मैं बात ही नहीं कर रहा, जो कह रहे हैं कि “और पिटाई होनी चाहिए थी।“

इधर कुछ वर्षों से तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले अनेक लोग अपना मैल छिपाने के लिए मेरे ऊपर भाजपाई, दक्षिणपंथी और जनसंघी होने का आरोप लगा रहे हैं, फिर भी इस बात को मैं मज़बूती से दर्ज करा देना चाहता हूं कि यह ऐसी घड़ी है, जब हम सब लोगों को मिल-बैठकर सोचना पड़ेगा कि हमारा लोकतंत्र किस रास्ते पर जा रहा है और कहीं हम अपने लाभ के लिए कैरेक्टर एसेसिनेसन, मॉब लिंचिंग और धार्मिक बंटवारे को ही तो अपनी मूल राजनीति नहीं बनाते जा रहे हैं। अगर ऐसा है तो शशि थरूर, जिनकी विश्वसनीयता अनेक कारणों से मेरी नज़र में बेहद कम है, हम उन्हीं की बात (हिन्दू पाकिस्तान) को सच्चा साबित करने की दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं।

मुस्लिम पाकिस्तान में क्या होता है? ईशनिंदा के आरोप में एक छात्र का सिर पत्थरों से कुचलकर उसे मार दिया जाता है। ईशनिंदा कानून का विरोध करने की वजह से एक गवर्नर की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है। एक गायक को सूफी गीत गाने की वजह से मौत के घाट उतार दिया जाता है। स्कूल जाने की वजह से एक बेटी पर जानलेवा हमला किया जाता है। धर्म के नाम पर अंधे हो चुके लोग कट्टरता की पराकाष्ठाएं पार करते हुए आतंकवादी बन जाते हैं और बेगुनाहों को मारने लगते हैं। कट्टरपंथी इस्लाम से असहमत लोगों और अल्पसंख्यकों का जीना दूभर हो जाता है। मानवता शर्मसार होने लगती है, पर न तो सरकार, न ही समाज- किसी के भी भीतर इस बात का पछतावा दिखाई देता है।

भारत में जब 26 जनवरी को राजपथ पर गणतंत्र दिवस की झांकियां निकलती हैं, तो सबसे ज्यादा ख़ूबसूरत वह इसलिए लगती हैं, क्योंकि वहां हमें अनेक संस्कृतियों, जीवन-शैलियों, धर्मों, विचारों की झलक देखने को मिलती है। अगर इन तस्वीरों को हम अपने राजपथ से हटा देंगे, तो हमारे गणतंत्र में सिर्फ़ तोपों व लड़ाकू विमानों का प्रदर्शन और सैनिकों व अर्द्धसैनिक बलों के करतब रह जाएंगे। कहने का तात्पर्य यह कि भारत की खूबसूरती उसके विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, विचारों, भाषाओं, सहमत-असहमत लोगों के समूहों और कुल मिलाकर उसकी अद्वितीय और गौरवशाली विविधता से है। इस विविधता को ख़त्म कर देंगे, तो यह भारत तो ख़त्म ही हो जाएगा।

इसलिए, अगर हिन्दू राष्ट्र का विचार इन घटनाओं के मूल में है, तो मैं इस विचार को भी सिरे से खारिज करना चाहता हूं। अगर भारत 15 अगस्त 1947 को हिन्दू राष्ट्र नहीं बना, तो अब 2018-19 या इसके बाद नहीं बन सकता। फिर भी अगर इसे हिन्दू राष्ट्र बनाना है तो इसे एक और बड़ा विभाजन झेलने के लिए तैयार होना होगा। पाकिस्तान से भी बड़ा टुकड़ा उन्हें देना होगा, जिन्हें हिन्दू राष्ट्र के विचारक अलग करना चाहते हैं। इतना ही नहीं, इस प्रक्रिया में फिर से उतना ख़ून बहेगा, जितना भारत-पाकिस्तान के विभाजन में 1947 में बहा। क्या भारत के हिन्दू और हिन्दू राष्ट्र के विचारक इस घनघोर हिंसा और ख़ून-ख़राबे के लिए तैयार हैं?

और जिस दिन विविधता में एकता, वसुधैव कुटुंबकम और अहिंसा परमो धर्म: की मौलिक भारतीय नीतियां छोड़कर बंटवारे की यह नीति हम स्वीकार कर लेंगे, उस दिन भारत एकजुट हिन्दू राष्ट्र भी नहीं रह पाएगा, क्योंकि सबसे पहले तो उस हिन्दू राष्ट्र के 22 टुकड़े भाषाओं के नाम पर ही हो जाएंगे। फिर विभिन्न हिन्दू जातियों के बीच अलग लड़ाई छिड़ेगी और वह भी समाज और भूमि के बंटवारे का कारण बनेगा। इसके अलावा, कट्टरपंथी हिन्दू उदारवादी हिन्दुओं का जीना हराम करेंगे। अलग-अलग देवी-देवताओं और पूजा-पद्धतियों को लेकर भी लड़ाई छिड़ेगी। आम लोगों के मानवाधिकार खतरे में पड़ जाएंगे। एक बंटवारे के दंश से 70 साल बाद भी हम मुक्त नहीं हो पाए हैं, दूसरा बंटवारा हुआ, तो आने वाले सैकड़ों साल तक भारत एक-दूसरे के प्रति नफ़रत की आग में झुलसता रहेगा। और यकीन मानिए, इन झुलसते राष्ट्रों के शासक भी हिन्दू-हितैषी नहीं, बल्कि मध्य युग के उन शासकों जैसे ही बर्बर होंगे, जो सत्ता के लिए अपने भाइयों-संबंधियों-आम नागरिकों की हत्याएं कराने तक से नहीं हिचकते थे।

यह विविधता भरा लोकतंत्र हमें सदियों की तपस्या के बाद मिला है। हिन्दू और मुसलमान भारत माता की दो आंखें हैं। अन्य धर्मों और विचारों के लोग भी हमारी भारत माता के अलग-अलग ज़रूरी अंग हैं। यह बात उचित नहीं है कि हम कभी वंदे मातरम के मुद्दे पर, कभी गाय के मुद्दे पर, कभी किसी अन्य मुद्दे पर अपने ही लोगों को गैर समझने लगें। यह बात और भी गलत है कि हिन्दुत्व के नाम पर हर व्यक्ति अपने को जज समझने लगे और अपनी सीमित समझ के आधार पर गली-चौराहे पर भीड़ की शक्ल में इकट्ठा होकर फैसले करने लगे और दूसरे धर्मों-विचारों-समुदायों के लोगों को सज़ा देने लगे।

ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियां भले ही कुछ राजनीतिक दलों को सत्ता-प्राप्ति के लिहाज से सूट कर सकती हैं, लेकिन देश को इनसे जो आघात और नुकसान पहुंचेगा, उसकी हम सब अभी कल्पना भी नहीं कर सकते। ख़ासकर जो लोग “व्यक्ति से बड़ा दल, दल से बड़ा देश” का नारा देते हुए नहीं अघाते, उन्हें इन दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों की गंभीरता और देश को इससे होने वाले संभावित नुकसानों को आकलन अवश्य करना चाहिए। सामाजिक समरसता की राह में टकराव के चाहे जो भी मुद्दे हैं, उनका तार्किक हल निकाला जाना चाहिए, न कि राजनीतिक लाभ के लिए उन्हें निरंतर हवा देते रहने की पॉलिसी अपनाई जानी चाहिए।

स्वामी अग्निवेश या अन्य किसी भी व्यक्ति से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन किसी की पिटाई करने वालों से सहमत कैसे हुआ जा सकता है? गली के चार गुंडे सड़क पर अपनी हैवानियत का प्रदर्शन करेंगे और बड़े-बड़े बुद्धिजीवी उन गुंडों की हैवानियत के समर्थन में लेख लिखेंगे? इसे “दुर्भाग्यपूर्ण” कहने के साथ-साथ “शर्मनाक” भी न कहें तो क्या कहें? एक 80 साल के निहत्थे बूढ़े की पिटाई से हिन्दुत्व पर कौन-सा उपकार हो गया? वे कौन लोग हैं, जो पागलों की भीड़ के विवेक को सर्वोपरि मानकर उसे हर असहमत/विरोधी व्यक्ति को हिन्दू-विरोधी या देश-विरोधी घोषित करके सज़ा सुना देने का लाइसेंस दे देना चाहते हैं?

सुप्रीम कोर्ट ने आए दिन मॉब लिंचिंग की घटनाओँ पर जो चिंता जताई है, देश का एक आम नागरिक और एक आम हिन्दू होने के नाते हम भी अपने को उस चिंता में शामिल करते हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच ने मॉब लिंचिंग को लेकर सख्त प्रतिक्रिया व्यक्त की है, उसमें वे चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा भी शामिल हैं, जिन्हें विरोधी दल महाभियोग लाकर हटाना चाहते थे और मेरे भाजपाई और दक्षिणपंथी दोस्त कहते फिर रहे थे कि उन्हें उनके राष्ट्रवादी विचारों के चलते और राम मंदिर पर फैसले को लटकाने के इरादे से निशाने पर लिया जा रहा है। यानी जिस जज को आप अपनी विचारधारा से जुड़ा मानते हैं, कम से कम उसकी चिंताओँ का तो सम्मान करें।

आखिर में एक और कड़वी बात कहना चाहूंगा। मेरे भाजपाई और दक्षिणपंथी दोस्त यह न भूलें कि अगर आपके हाथों विरोधियों का पिटना सही है, तो जब केरल और पश्चिम बंगाल में आपके विरोधी आपको पीटते हैं, तो आप उसे गलत कैसे ठहराएंगे? और अगर दुर्योग से कल आपकी सत्ता चली जाएगी, तो अगर कांग्रेसी और वामपंथी आपको पीटना शुरू कर देंगे, तो उसे गलत ठहराने के लिए मुंह आप कहां से लाएंगे? इसलिए, मैं उन तमाम लोगों की निंदा करता हूं, जो हिंसा की राजनीति का समर्थन करते हैं, चाहे वे किसी भी दल या संगठन से जुड़े क्यों न हों।

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