व्यंग्य: जहां न पर मार सके परिंदा, वहां भी पहुंच जाए दरिंदा
‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि’ वाली कहावत पुरानी हुई।
वैसे भी कवि अब वहीं तक पहुंच पाते हैं, जहां तक उन्हें उपकृत-पुरस्कृत करने वाले पहुंचने देते हैं। साथ ही, कवि अब स्वयं भी उन अंधेरी जगहों तक नहीं पहुंचना चाहते, जहां रवि का पहुंचना भी मुश्किल हो। अब तो वे बस उन जगमग उजालों अथवा नाचती रोशनियों वाले द्वीपों तक ही पहुंचना चाहते हैं, जहां जाकर उनके अपने जीवन का अंधेरा ख़त्म हो जाए।
इसलिए, एक नई कहावत समाज को सौंप रहा हूं-
“जहां न पहुंच सके मंकी, वहां भी पहुंच जाए आतंकी।”
माना जाता है कि मंकी की पहुंच काफी तगड़ी होती है। वे अपनी उछल-कूद से कहीं भी पहुंच सकते हैं। लेकिन हिन्दुस्तान में ऐसी अनेक जगहें हैं, जहां मंकी भी नहीं पहुंच सकते, लेकिन आतंकी अवश्य पहुंच सकते हैं। वे कौन सी जगहें हैं, आप सबको पहले से पता हैं, इसलिए उनपर रोशनी डालकर अपनी बैट्री ख़र्च नहीं करूंगा।
लेकिन, अगर ऊपर वाली कहावत आपको पसंद न आए, तो नीचे वाली कहावत भी सौंप रहा हूं-
“जहां न पर मार सके परिंदा, वहां भी पहुंच जाए दरिंदा।”
परिदों को पर मारने से भला कौन रोक सकता है? उड़ान भरने और कलाबाज़ियां दिखाने की अपनी क्षमता के कारण वे कहीं भी पहुंच सकते हैं। लेकिन हिन्दुस्तान में ऐसी अनेक जगहें हैं, जहां परिंदे भी पर नहीं मार सकते, लेकिन दरिंदे अवश्य पहुंच सकते हैं। वे जगहें कौन सी हैं, आप सब पहले से जानते हैं, इसलिए नाम लेने के लिए बार-बार इनसिस्ट मत कीजिए, वरना मैं भी रेसिस्ट नहीं कर पाऊंगा। शुक्रिया।
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