यह #MeToo एक पुरुष पत्रकार का है, पढ़ेंगे तो आंखें खुल जाएंगी!

अभिरंजन कुमार जाने-माने लेखक, पत्रकार और मानवतावादी चिंतक हैं।

यह सही है कि ऊपर चढ़ने के लिए कई महिलाएं भी शरीर को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर लेना चाहती हैं। यह भी सही है कि मुख्यतः इन्हीं महिलाओं की वजह से उन पुरुषों का हौसला बढ़ता है, जो शोषण कर सकने की स्थिति में होते हैं। ऐसे पुरुष सबसे पहले ऐसी ही महिलाओं को ताड़ते हैं और इस्तेमाल करते हैं। फिर जब धीरे-धीरे उनका हौसला बढ़ने लगता है, तो उनकी बेशर्मी भी बढ़ने लगती है और उनके भीतर एक ऐसा अपराधी भी पैदा होने लगता है, जिसे समाज ने अभी तक अपराधी के रूप में देखा नहीं है। उन्हें लगने लगता है कि स्त्रियों को भोगना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। वे अन्य स्त्रियों को भी उसी नज़र से देखने लगते हैं, जो इस तरह नहीं सोचती हैं। यह अन्य स्त्रियां जो उनके सामने समर्पण नहीं करती हैं, उनके प्रति उनका व्यवहार नकारात्मक, अनप्रोफेशनल और अमानवीय होने लगता है। इतना ही नहीं, स्त्रियों को भोगने की लत और वहशत में वे अपने साथी पुरुष कर्मियों के साथ भी अनप्रोफेशनल और अनफ़ेयर होने लगते हैं।

मै जानता हूं ऐसे अनेक बॉसेज को, जो हमारे साथ की लड़कियों को सोफे पर बिठाकर इलू-इलू बतियाते रहते थे और हमें देर तक खड़े रह जाना पड़ता था किसी ख़बर के बारे में कोई निर्देश लेने के लिए। वे दोनों रिलैक्स्ड हुआ करते थे और हम दहशत में रहते थे। ऐसे बेशर्म बॉसेज के सामने हमारी उन महिला सहकर्मियों को भी बुरा नहीं लगता था, बल्कि उन्हें ख़ुद के ख़ास और हमारे मामूली होने का अहसास हुआ करता था। हमारे देखते-देखते बॉसेज उन्हें किसी रेस्टोरेंट, पार्टी या मूवी के लिए लेकर चले जाया करते थे और हम पर निर्देशों का बोझा आ पड़ता था कि यह ऐसे कर लेना, वह वैसे कर लेना। इतना ही नहीं, हमें न सिर्फ़ अपने ऐसे बॉसेज से, बल्कि अपनी उन महिला सहकर्मियों से भी डरना पड़ता था, जो हमारे बॉसेज के बगल में सोफे पर बैठकर इलू-इलू बतिया लेती थीं और बॉसेज द्वारा किसी भी अंग पर किसी भी प्रकार के स्पर्श से जिन्हें परहेज नहीं हुआ करता था।

लेकिन उन सभी लड़कियों को, जो आज #MeToo कैम्पेन के तहत बोल रही हैं, एक ही जैसा मान लेना उनमें से कइयों के प्रति अन्याय हो सकता है। साथ काम करने वाले लोग जानते हैं कि कौन लड़की कैसी है और कौन लड़का कैसा है। मैं आपको बता सकता हूं कि सचमुच कई बार मजबूरी हो जाती है, जब बॉस अभद्रता करता है और लड़की चुप रह जाती है या तुरंत कोई फ़ैसला नहीं ले पाती। हमेशा यह आसान नहीं होता कि आप जमे-जमाए करियर और नौकरी से मिलने वाले वेतन, जिसकी आपको और आपके परिवार को बेहद ज़रूरत होती है, पल भर में उसे लात मारकर चल देने का फ़ैसला कर लें। यह फ़ैसला वह कर भी ले, अगर उसे विश्वास हो कि ऐसा करने के बाद भी इंडस्ट्री में उसके लिए राहें मुश्किल नहीं होंगी। लेकिन सच्चाई यह है कि वह डरती है कि अगर एक बार ऐसी कोई घटना उसके नाम के साथ जुड़ गई तो शायद दूसरे संस्थानों में दूसरे बॉसेज भी उन्हें नौकरी न दें, क्योंकि आपस में सब एक-दूसरे से किसी न किसी प्रकार जुड़े रहते हैं।

यूं यह आदर्श स्थिति हो सकती है कि अगर पहली बार कोई बॉस किसी पहली लड़की पर बुरी नज़र डाले, तभी उसे एक करारा थप्पड़ पड़ जाए। अगर सचमुच ऐसा होने लगे, तो निश्चय ही वह व्यक्ति जो हवसी और वहशी बनने के रास्ते पर चल पड़ा है, वहीं रुक जाए और जीवन में दोबारा ऐसी हरकत करने की हिमाकत न करे। लेकिन शरीर को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करके आगे बढ़ जाने की चाह रखने वाली महिलाएं तो ऐसा नहीं ही कर पातीं, बल्कि उनके ऐसा न कर पाने की कीमत उन सभी महिलाओं को भी चुकानी पड़ती है, जिनकी सोच ऐसी नहीं होती और जो सचमुच इन सबसे काफी परेशान हो जाती हैं।

ऐसे अनेक वाकये हैं, लेकिन उनमें से केवल एक वाकया सुनाता हूं। एक बड़े न्यूज़ चैनल के भरे न्यूज़रूम में हम अनेक लोग आउटपुट डेस्क पर एक साथ बैठकर काम कर रहे थे। हमारे साथ इंडस्ट्री की एक नामचीन एंकर भी बैठीं अपने बुलेटिन के एंकर लिंक्स देख रही थीं। इन एंकर साहिबा के प्रति हम लोगों के मन में तब भी काफी सम्मान था और आज भी काफी सम्मान है, क्योंकि हमें तब भी दृढ़ विश्वास था और आज भी है कि वे काफी अच्छी महिला थीं और हैं। तभी उस चैनल के नामचीन संपादक, जो आज भी जाने-माने हैं और इंडस्ट्री में उनका बड़ा नाम है, अपने केबिन से निकलकर वहां आ पहुंचे। वे पहुंचे और अनायास ही उस महिला एंकर के ठीक पीछे खड़े होकर बेहिचक और बड़ी ही बेहयाई से उनके गालों से लेकर उनके कंधे और गर्दन या उससे भी ज़रा नीचे तक सहला दिया। और यह सहलाना इतने इत्मीनान से था कि यह बिल्कुल सोचा-समझा हुआ और दुस्साहसिक कदम लग रहा था। यह एक ऐसा पल था, जिसने वहां काम कर रहे तमाम लोगों को असहज कर दिया। ख़ुद महिला एंकर बड़ी असहज हो गईं और वहां बैठे तमाम पुरुष साथियों ने अपनी नज़रें फेर लीं।

जिन बॉस ने यह हरकत की थी, वे महिलाओं के प्रति ऐसी ही नज़र रखने के लिए कुख्यात थे। अनेक एंकर-रिपोर्टर लड़कियों के साथ उनके किस्से फ़िज़ाओं में थे, जिनकी गवाही न्यूज़रूम में जब-तब दिखाई देने वाले दृश्यों से भी हो जाया करती थी। लेकिन आम तौर पर यह माना जाता था कि जिन लड़कियों के साथ उनके किस्से हवाओं में हैं, वे आपसी सहमति के मामले हो सकते हैं और इसलिए उनमें किसी दूसरे के एतराज का कोई मामला बनता नहीं था। लेकिन इन महिला एंकर के साथ अभी बॉस ने जो हरकत की थी, उनकी छवि एक साफ-सुथरी ज़हीन और गरिमामयी महिला की थी, जैसा कि पहले भी कह चुका हूं। इसलिए, भीतर ही भीतर मेरा ख़ून खौल उठा। संभव है कि वहां बैठे अन्य साथियों में से कइयों का भी ख़ून खौला हो, लेकिन न उनके मन की बात हम जान पाए, न हमारे मन की बात वे जान पाए। मैं इस बात के इंतज़ार में था कि अगर वह महिला एंकर ज़रा सा प्रोटेस्ट करें, तो हम अपने बॉस पर उसी वक्त चीख़ पड़ें, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। महिला एंकर ख़ून का घूंट पीकर रह गईं और लिहाजा हमें भी ख़ून का घूंट पीकर रह जाना पड़ा।

हालांकि आज जब भी इस घटना को याद करता हूं तो मुझे ख़ुद पर अफसोस होता है कि अन्य लोग चुप रह गए तो रह गए, मैं क्यों चुप रह गया? मैं क्यों इस बात का इंतज़ार करता रहा कि वह महिला एंकर प्रोटेस्ट करें और फिर मैं चीखूं? क्यों नहीं पहले मैं ही चीखा? शायद मेरे चीखने से उन महिला एंकर को भी प्रोटेस्ट करने का हौसला मिलता। लेकिन फिर दुविधा भी घेरती है कि हम जिस दौर में जी रहे हैं, उसमें अगर महिला स्वयं पहले प्रोटेस्ट न करे तो किसी अन्य व्यक्ति के प्रोटेस्ट करने का क्या मामला बनता है?

उपरोक्त वाकया हमने इसलिए बताया कि आज अगर वह महिला एंकर #MeToo के तहत अपनी बात रखने का फैसला करें तो हम यह नहीं कह सकते कि 12-13 साल बाद वह ऐसा क्यों कर रही हैं। उनका तब चुप रह जाना साहस की कमी हो सकती है, लेकिन उससे यह साबित नहीं होता कि वह भी वैसी ही थीं, इसलिए चुप रह गईं। दरअसल उस वक्त उनमें साहस की कुछ कमी उनकी कुछ निजी और पारिवारिक मजबूरियों के चलते भी हो सकती है, जिनका हम लोग सहज ही अंदाज़ा लगा सकते हैं, जो उन्हें जानते हैं। यहां गौरतलब है कि एक अन्य महिला एंकर ने तो उक्त बॉस के ख़िलाफ़ बाकायदा प्रबंधन में शिकायत दर्ज कराई थी। शायद उनके ख़िलाफ़ बॉस की हरकतें हद से ज़्यादा बढ़ गई थीं। इसलिए, आज जो तमाम लड़कियां और महिलाएं #MeToo में बोल रही हैं, उन सबको एक जैसा समझ लेना या चालू घोषित कर देना निहायत ही ग़ैर-ज़िम्मेदाराना और गरिमा-विहीन रवैया होगा।

एक और बात मैं आपसे शेयर करना चाहता हूं। जिन लड़कियों ने ऐसे बॉसेज के सामने घुटने नहीं टेके, उनमें से कुछ कामयाब भी अवश्य हुई होंगी, लेकिन अनेक इंडस्ट्री से बाहर भी हो गईं। इंडस्ट्री से बाहर होने का एक मतलब असफल और गुमनाम रह जाना भी है। आज उनकी कोई आवाज़ नहीं है। आज अगर वे बोलें भी, तो आप उनकी बात नहीं सुनेंगे। पूछेंगे कि यह कौन है? बिना जाने-समझे यह भी कह देंगे कि वह भी ऐसी ही होगी, इसीलिए ऐसा बोल रही है। या योग्य नहीं थी या असफल हो गई, इसलिए बदले की भावना से अपने बॉस पर लांछन लगा रही हैं। इतना ही नहीं, आप एक शक्तिशाली पुरुष, जो आपका हीरो है, उसके पक्ष में और वह गुमनाम महिला, जो आपकी नज़र में हैसियत-विहीन है, उसके विरोध में खड़े हो जाएंगे। इसलिए, जो सफल महिलाएं आज अपने अतीत के ऐसे वाकयों को सामने रख रही हैं, उन सब पर शक करना और उनपर उंगली उठाना समझदारी नहीं है। कल वह विरोध करने की स्थिति में नहीं थीं, तो नहीं कर पाईं। आज विरोध करने की ताकत उन्हें मिली है, तो कर रही हैं। इसके लिए उनके चरित्र पर उंगली उठाना या इसे अवसरवादिता कहना पुरुषवादी मानसिकता भी हो सकती है।

यह सब कहने का यह मतलब नहीं कि आप #MeToo के तहत सामने आई सारी कहानियों को सच ही मान लें, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि इसमें जिन लोगों पर दाग लग रहे हैं, वे सभी बेदाग ही हों। हम जज नहीं बनना चाहते हैं। न उन पुरुषों के लिए जिनपर आरोप लगे हैं, न उन महिलाओं के लिए जो आरोप लगा रही हैं।

विदेश राज्य मंत्री एमजे अकबर का मामला अद्वितीय है। एकाध महिलाओं के आरोप उनपर लगे होते, तो हम भी उन महिलाओं की नीयत पर शक करते हुए कह सकते थे कि मुमकिन है एमजे पर ये आरोप राजनीतिक कारणों से लगाए गए हों। लेकिन अगर 14-15 महिलाओं में से हर एक के आरोप को हम राजनीतिक साज़िश मान लें तो यह तो घोर कलियुग हो जाएगा। क्योकि ऐसा तो घोर कलियुग में ही संभव हो सकता है कि आरोप लगाने वाली इतनी सारी महिलाएं एक साथ झूठी हों और राजनीतिक कारणों से आरोप लगा रही हों। इसलिए, यह जानते हुए भी कि आरोप लगाने वाली महिलाओं के दावे कानून में शायद ही टिकें, यहां सामाजिक और राजनीतिक नैतिकता का मसला तो बनता ही है। न तो बिना किसी जांच के हम एमजे अकबर को फांसी चढ़ाने के लिए कह रहे हैं, न जेल भेजने के लिए, केवल यह ज़रूर समझते हैं कि सामाजिक और राजनीतिक नैतिकता के नाते उन्हें जांच पूरी होने तक कुर्सी अवश्य छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो इससे समूची महिला बिरादरी में हताशा और निराशा छाएगी।

एक बात समझ लीजिए कि अगर इस आधार पर कि तब क्यों नहीं बोला, आज आप आवाज़ उठाने वाली सभी महिलाओं को संदेह की नज़र से देखेंगे और आरोपी व्यक्तियों को संदेह का लाभ देकर बरी कर देंगे, तो इसके दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे। आज अगर कुछ लोगों को, जिन्हें कानूनी तौर पर सज़ा न भी मिले, लेकिन पद छोड़ने को मजबूर होना पड़े, तो अलग-अलग इंडस्ट्रीज़ में मौजूद ऐसे सभी तत्वों को एक सबक मिल सकता है कि गलत करके वे बच नहीं सकते। आज नहीं तो कल उन्हें भुगतना ही होगा और वे महिलाओं के प्रति अधिक ज़िम्मेदारी और गरिमा से पेश आने को मजबूर होंगे।

लेकिन यदि आज आप आरोपी व्यक्तियों को न कानूनी दंड, न नैतिक दंड देंगे और वे सभी अपनी-अपनी जगह महफ़ूज़ रह जाएंगे, तो ऐसे तत्वों का अहंकार और बढ़ेगा कि कुछ महिलाएं फरफराई तो थीं, आरोपियों का किसी ने क्या बिगाड़ लिया? लिहाजा जिस राह पर वे चल रहे हैं चलते रहेंगे। दूसरी तरफ, अपनी-अपनी जगह कार्यरत लड़कियों और महिलाओं का मनोबल इससे टूटेगा और आगे भी वे ऐसे लोगों के सामने घुटने टेकते रहने के लिए मजबूर होती रहेंगी। आज वे मजबूरी में नहीं बोलेंगी। कल वे ताकतवर होकर भी नहीं बोलेंगी। कार्यस्थलों की यह भीषण बुराई भीतर ही भीतर हमारी मां-बहन-बेटियों का शोषण करती रहेगी और हम लोग महिलाओं की गरिमा और सुरक्षा पर केवल लेक्चर ही देते रह जाएंगे।

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