महिलाओं की सारी समस्याएं सुलझ चुकीं, केवल सेक्स और पूजा का अधिकार ही बाकी था!
मुझे माफ़ करना दोस्तो। पिछले कुछ दिनों में कुछ ज़्यादा ही अपच सच बोल चुका हूं, इसलिए एक और बोल दूं तो अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।
इस देश में जेंडर इक्वैलिटी की लड़ाई दिशा भटक चुकी है। वामपंथी फेमिनिस्टों के लिए जेंडर इक्वैलिटी का मतलब आज जहां केवल उच्छृंखल सेक्स की आज़ादी रह गया है, वहीं दक्षिणपंथी फेमिनिस्टों के लिए इसका मतलब किसी भी मंदिर में जबरन प्रवेश या पूजा का अधिकार हासिल कर लेना भर रह गया है।
दुर्भाग्य यह कि देश का सुप्रीम कोर्ट भी जेंडर इक्वैलिटी की इसी संकुचित समझ में उलझ गया है। कम से कम उसके हालिया अनेक फैसलों से तो ऐसा ही लगता है। मज़े की बात यह है कि जेंडर इक्वैलिटी को लेकर ताबड़तोड़ फ़ैसले देने वाली देश की इस सर्वोच्च न्यायिक संस्था में वर्तमान में कुल 25 जजों में से केवल 3 महिलाएं हैं।
उच्छृंखल सेक्स की आज़ादी मांगने वालों पर काफी लिख चुका हूं, इसलिए इस टिप्पणी में किसी भी मंदिर में जबरन प्रवेश या पूजा का अधिकार मांगने वालों पर लिख देता हूं।
ज़रा सोचिए, इस देश में सैकड़ों-हज़ारों-लाखों मंदिर हैं, जहां पुरुष और महिलाएं सभी पूजा कर सकते हैं, लेकिन ये दक्षिणपंथी फेमिनिस्ट उन सैकड़ों-हज़ारों-लाखों मंदिरों में पूजा करके संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें तो बस उसी मंदिर में प्रवेश और पूजा करने से बराबरी का अहसास होगा, जिस मंदिर के साथ कुछ पुरातन मान्यताएं जुड़ी हुई हैं।
यह तो वही बात हो गई कि देश में अनेकों स्कूल-कॉलेज हैं कोएड के, लेकिन जेंडर इक्वैलिटी का मुद्दा उठाकर कल को कुछ लड़के कहने लगें कि उन्हें तो बस गर्ल्स स्कूल या कॉलेज में ही पढ़ना है या फिर कुछ लड़कियां कहने लगेंं कि उन्हें तो केवल बॉयज़ स्कूल या कॉलेज में ही पढ़ना है।
ऐसा लगता है कि इस देश में महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, सुरक्षा, तरह-तरह के यौन अपराधों और हमलों, भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, तलाक, धोखा, संपत्ति के अधिकार, समान अवसर न मिलने, समान काम के लिए समान मेहनताना न मिलने, कार्य-स्थलों पर असमान व्यवहार, वेश्यावृत्ति, ट्रैफिकिंग इत्यादि से जुड़ी सारी समस्याएं सुलझ चुकी हैं और अब केवल मनमाफिक सेक्स और पूजा का अधिकार मिलना ही बाकी रह गया था।
वैसे अच्छा ही है कि देश की राजनीति की ही तरह, न्याय-व्यवस्था भी लोगों को सेक्स और पूजा के मीठे-मीठे नशे में मदहोश रखे, ताकि लोगों का ध्यान ज़मीनी मुद्दों पर न जा सके। जजों का काम तो इतने से भी बन ही जाता है। पब्लिसिटी भी मिल जाती है और इतिहास भी बन जाता है। महिलाओं का पुष्टीकरण हो न हो, तुष्टीकरण तो हो रहा है!
इससे अधिक कुछ नहीं कहूंगा, क्योंकि इस देश में बौद्धिक, राजनीतिक और न्यायिक विमर्श का स्तर इतना सतही हो चुका है कि इस पर कुछ भी बोलना ख़ुद को ही प्रतिगामी साबित करना है। शुक्रिया।
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