लैंगिक समानता की सतही व्याख्या का नतीजा है सबरीमाला मंदिर विवाद

अभिरंजन कुमार जाने-माने लेखक, पत्रकार और मानवतावादी चिंतक हैं।

आप जानते हैं? मेरे देश की महिलाओं को जहां सचमुच न्याय की ज़रूरत है, जैसे कि #MeToo और बलात्कार जैसे मामलों में, वहां मेरे देश की अदालत सबूत मांगेगी और सबूत न दे सकने पर पीड़ित महिलाओं को बिना इंसाफ़ दिए अपने दर से बैरंग लौटा देगी। लेकिन जहां आस्था और सदियों से चली आ रही परंपरा का सवाल है, जिसमें कायदे से अदालत का कोई रोल होना नहीं चाहिए, वहां उसने अपने को ‘सुपर-फेमिनिस्ट’ साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

बात मैं केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं की पूजा से जुड़े विवाद और हंगामे की कर रहा हूं। वहां 10 से 50 साल की रजस्वला महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी थी, लेकिन अन्य महिलाएं जो इस उम्र वर्ग में नहीं आतीं, वे वहां जा सकती थीं। मान्यता है कि चूंकि भगवान अय्यप्पा ब्रह्मचारी थे, इसलिए उनके मंदिर में रजस्वला महिलाओं को नहीं जाना चाहिए।

लेकिन अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में कुछ महिलाओं ने सबरीमाला मंदिर की इस परंपरा पर एतराज किया, तो सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से दिए फ़ैसले में उन्हें वहां पूजा करने का अधिकार दे दिया। मान लिया कि महिलाओं से भेदभाव हो रहा है, जबकि इसमें भेदभाव जैसी कोई बात थी ही नहीं। बात थी एक मान्यता के चलते एक विशेष मंदिर में अपनाए जाने वाले कुछ निषेधों की।

हालांकि सबरीमाला मंदिर में प्रचलित इस परंपरा के तर्कों का मैं समर्थन नहीं करता, लेकिन साथ ही यह भी समझता हूं कि जितनी बेवकूफ़ाना इस मंदिर में चली आ रही यह परंपरा है, उतना ही ग़ैरज़रूरी सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप भी था। कायदे से सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में दखल ही नहीं देना चाहिए था, जैसा कि फैसला सुनाने वाली बेंच की एकमात्र महिला सदस्य जस्टिस इंदु मल्होत्रा का भी मानना था।

दरअसल, इस देश में लैंगिक समानता की लड़ाई दिशा भटक चुकी है। वामपंथी फेमिनिस्टों के लिए लैंगिक समानता का मतलब आज जहां केवल शारीरिक संबंध बनाने की उच्छृंखल आज़ादी भर रह गया है, वहीं दक्षिणपंथी फेमिनिस्टों के लिए इसका मतलब किसी भी मंदिर में जबरन प्रवेश या पूजा का अधिकार हासिल कर लेना भर रह गया है।

दुर्भाग्य यह कि देश का सुप्रीम कोर्ट भी लैंगिक समानता की इसी संकुचित समझ में उलझ गया। कम से कम उसके हालिया अनेक फैसलों (धारा 377 और धारा 497 पर दिए फैसलों सहित) से तो ऐसा ही लगता है। विडंबना यह भी है कि लैंगिक समानता को लेकर ताबड़तोड़ फ़ैसले देने वाली देश की इस सर्वोच्च न्यायिक संस्था में वर्तमान में कुल 24 जजों में से केवल 3 महिलाएं हैं।

ज़रा सोचिए, इस देश में सैकड़ों-हज़ारों-लाखों मंदिर हैं, जहां पुरुष और महिलाएं सभी पूजा कर सकते हैं, लेकिन ये दक्षिणपंथी फेमिनिस्ट उन सैकड़ों-हज़ारों-लाखों मंदिरों में पूजा करके संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें तो बस उसी मंदिर में प्रवेश और पूजा करने से बराबरी का अहसास होगा, जिस मंदिर के साथ कुछ पुरातन मान्यताएं जुड़ी हुई हैं।

यह तो वही बात हो गई कि देश में अनेकों स्कूल-कॉलेज हैं कोएड के, लेकिन जेंडर इक्वैलिटी का मुद्दा उठाकर कल को कुछ लड़के कहने लगें कि उन्हें तो बस गर्ल्स स्कूल या कॉलेज में ही पढ़ना है या फिर कुछ लड़कियां कहने लगेंं कि उन्हें तो केवल बॉयज़ स्कूल या कॉलेज में ही पढ़ना है।

यह बात मेरी समझ से बाहर है कि अगर सैंकड़ों-हज़ारों-लाखों मंदिरों में नित्य प्रतिदिन पूजा करने के बावजूद देश में महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की बनी हुई है, तो एक सबरीमाला मंदिर में प्रचार की भूखी चंद महिलाओं को पूजा का अधिकार दे दिए जाने से महिलाओं के जीवन में क्या सुधार आने वाला है?

ऐसा लगता है, जैसे इस देश में महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, सुरक्षा, तरह-तरह के अपराधों और हमलों, भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, तलाक, धोखा, संपत्ति के अधिकार, समान अवसर न मिलने, समान काम के लिए समान मेहनताना न मिलने, कार्य-स्थलों पर असमान व्यवहार, वेश्यावृत्ति, ट्रैफिकिंग इत्यादि से जुड़ी सारी समस्याएं सुलझ चुकी हैं और अब केवल शारीरिक संबंध बनाने की मनमाफिक आज़ादी और पूजा का अधिकार मिलना ही बाकी रह गया था।

वैसे अच्छा ही है कि देश की राजनीति की तरह, न्याय-व्यवस्था भी लोगों को शारीरिक संबंध और पूजा के मीठे-मीठे नशे में मदहोश रखे, ताकि लोगों का ध्यान ज़मीनी मुद्दों पर न जा सके। जजों का काम तो इतने से भी बन ही जाता है। पब्लिसिटी भी मिल जाती है और इतिहास भी बन जाता है। महिलाओं का पुष्टीकरण हो न हो, तुष्टीकरण तो हो रहा है!

इससे अधिक कुछ नहीं कहूंगा, क्योंकि इस देश में बौद्धिक, राजनीतिक और न्यायिक विमर्श का स्तर इतना सतही हो चुका है कि इस पर कुछ भी बोलना ख़ुद को ही प्रतिगामी साबित करना है। शुक्रिया।

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