डीयू में जेंडर न्यूट्रल कानूनों की ज़रूरत पर मंथन, सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसलों की रही गूंज

22 नवंबर, दिल्ली। टीम बहस लाइव। सितंबर महीने में सुप्रीम कोर्ट के एक के बाद एक तीन फैसलों से देश अब तक उद्वेलित है। जहां केरल के सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 साल की महिलाओं को प्रवेश की इजाजत देने से जुड़े फैसले का जमकर विरोध हो रहा है, वहीं धारा 377 और धारा 497 पर आए फैसलों के कुछ पहलुओं को लेकर भी देश में भीतर ही भीतर बेचैनी का आलम है। इसी परिप्रेक्ष्य में गुरुवार को दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय में “जेंडर न्यूट्रल कानूनों की दिशा में भारत की यात्रा” विषय पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वीके शुक्ला

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व कार्यवाहक चीफ जस्टिस वीके शुक्ला ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का बचाव करते हुए कहा कि संसद और सरकार को समय-समय पर कानूनों की समीक्षा करके उनमें रद्दोबदल का काम करते रहना चाहिए। जब सरकार और संसद यह काम ठीक से नहीं कर पाते, तो न्यायपालिका को अपना काम करना होगा और समय के साथ अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को ख़त्म करना होगा।

जस्टिस शुक्ला ने धारा 497 को निरस्त करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के समर्थन में कहा कि 158 साल पुराने इस कानून की अब कोई आवश्यकता नहीं रह गई थी। इस कानून में जहां स्त्री और पुरुष के बीच में भेदभाव किया गया था, वहीं पति की इजाज़त या सहमति से पत्नी के परपुरुष से संबंध का निषेध नहीं था। इसका मतलब है कि पत्नी की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं थी और वह पति की गुलाम थी।

वहीं न्यूट्रल मीडिया प्रा. लि. के निदेशक और वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार ने कहा कि इस देश में लैंगिक समानता की लड़ाई दिशा भटक चुकी है। लैंगिक समानता की सतही व्याख्या की जा रही है। इसे मुख्य रूप से सेक्स और पूजा के अधिकार के इर्द-गिर्द समेटने की कोशिश की जा रही है और दुर्भाग्य से न्यायपालिका ने भी पिछले दिनों सुचिंतित फैसले नहीं दिए हैं। सबरीमाला मंदिर पर आए फैसले का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि वहां पर लैंगिक असमानता का कोई मामला बनता ही नहीं था, क्योंकि एक तरफ महिलाएं देश के लाखों मंदिरों में बेरोकटोक पूजा कर सकती हैं, वहीं दूसरी तरफ अनेक मंदिर ऐसे भी हैं, जहां पुरुषों के पूजा करने पर भी पूर्ण या सीमित रूप से पाबंदियां लगी हुई हैं। दरअसल यह कुछ मंदिरों की अपनी विशेष मान्यताओं का मामला है, जिसे जबरन लैंगिक समानता के मुद्दे से जोड़ा जा रहा है।

न्यूट्रल मीडिया प्रा. लि. के निदेशक और वरिष्ठ लेखक-पत्रकार अभिरंजन कुमार

धारा 497 को निरस्त किए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अभिरंजन कुमार ने कहा कि कोर्ट ने एक त्रुटिपूर्ण कानून पर त्रुटिपूर्ण फैसला दिया है। नए समय में धारा 497 अप्रासंगिक हो गई थी, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन व्यभिचार अब अपराध नहीं रहेगा, यह गले उतरने वाली बात नहीं। उन्होंने कहा कि विवाह व्यवस्था और परिवार व्यवस्था भारतीय समाज की नींव हैं और व्यभिचार को अपराध के दायरे से बाहर कर देने से अगले 20-25-30 साल में धीरे-धीरे इस नींव में घुन लग जाने का ख़तरा है।

अभिरंजन कुमार ने कहा कि विवाह संबंध को लिव-इन-रिलेशनशिप जैसा बना देना गलत है। विवाह-संबंध में रहते हुए व्यभिचार की इजाज़त पति या पत्नी किसी को भी नहीं दी जानी चाहिए। अगर विवाह-संबंध में दिक्कत है तो तलाक लेकर आप नए संबंध बना सकते हैं, लेकिन विवाह-संबंध में रहते हुए नहीं। सुप्रीम कोर्ट दो बालिग लोगों की सहमति को प्रधानता देता है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विवाह का रिश्ता भी भरे समाज के सामने दो बालिग लोगों की सहमति के ही आधार पर कायम होता है, जिसे कानूनी मान्यता भी मिली हुई है। उन्होंने कहा कि किसी भी व्यभिचारी संबंध से केवल उस संबंध को कायम करने वाले दो लोग ही नहीं, बल्कि उन दोनों लोगों के पति/पत्नी, बच्चे और उनके अधिकार भी प्रभावित होते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इसकी चिंता नहीं की है। उन्होंने कहा कि पति-पत्नी के सभी अधिकार एक-दूसरे से स्वतंत्र नहीं हो सकते।

अभिरंजन कुमार ने धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ पहलुओं पर भी निराशा जताई। उन्होंने कहा कि दो लोगों की आपसी सहमति की भी एक सीमा आपको निर्धारित करनी पड़ेगी। ऐसा नहीं होना चाहिए कि दो लोग किसी भी अनैतिक रिश्ते के लिए तैयार हो जाएं तो समाज और कानून को उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। अभिरंजन कुमार ने कहा कि चूंकि लोकतंत्र जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा संचालित व्यवस्था है, इसलिए इसके तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को जनता की इच्छाओं, आकांक्षाओं और भावनाओं के अनुरूप ही काम करना चाहिए। सामाजिक नैतिकता और संवैधानिक नैतिकता के बीच का फ़ासला अधिक होगा, तो परेशानी पैदा हो सकती है।

सेमिनार में सुप्रीम कोर्ट की वकील साक्षी कोटियाल, हरप्रीत सिंह होरा, फैकल्टी ऑफ लॉ दिल्ली विश्वविद्यालय की डीन प्रो. वेद कुमारी, प्रो. सरबजीत कौर और अंजू वाली टिक्कू ने भी अपने विचार रखे। कार्यक्रम का आयोजन लॉ सेंटर स्टूडेंट्स यूनियन और जस्टिस फॉर राइट्स फाउंडेशन ने मिलकर किया था।

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