“ये अभिरंजन कुमार क्या भाजपाई हैं?”

एक मित्र ने बताया कि तीन प्रगतिशील स्त्रियां मेरे एक लेख पर चर्चा कर रही थीं-“जीव-हत्या, वेश्यावृत्ति और नशाखोरी को जस्टिफाइ करने वाले मनुष्य नहीं हैं।”

मैंने लिखा था- “मानवता, मानवीय गरिमा और मानवीय स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए तीन चीज़ों पर पूर्ण प्रतिबंध लगे और इन्हें किसी भी किस्म के रोज़गार से न जोड़ा जाए। एक- मानवता के लिए जीव हत्या रुके। दो- मानवीय गरिमा के लिए वेश्यावृत्ति रुके। तीन- मानवीय स्वास्थ्य के लिए पूर्ण नशाबंदी हो।”

पहली प्रगतिशील स्त्री ने पूछा- “ये अभिरंजन कुमार क्या भाजपाई हैं?” उनके पूछने का भाव ऐसा था कि अगर यह कन्फर्म हो जाए, तो अभिरंजन कुमार को अछूत बनाकर जनसंघी बुद्धिजीवियों की टोकरी में डाल देंगी और आगे से मेरे लेख पढ़े बिना ही मेरा विरोध करना शुरू कर देंगी।

दूसरी प्रगतिशील स्त्री ने कहा- “क्यों क्या हुआ? मैंने पहले भी उनको पढ़ा है। ये हमेशा से पशु-पक्षियों की हत्या के विरोध में लिखते रहे हैं। वेश्यावृत्ति, नशाबंदी आदि मुद्दों पर हमेशा ये ऊंचे आदर्शों की बातें करते हैं।”

तीसरी प्रगतिशील स्त्री ने कहा- “नहीं, पर ये तो बीजेपी का एजेंडा है न। एक पत्रकार को बीजेपी के एजेंडे को आगे बढ़ाना शोभा देता है क्या?”

दूसरी प्रगतिशील स्त्री ने जवाब दिया- “हां, बीजेपी का एजेंडा तो होगा, पर अगर किसी मु्द्दे पर लेखक का एजेंडा भी मिलता-जुलता हो तो वह क्या करे?”

पहली प्रगतिशील स्त्री ने पलटवार किया- “लेकिन इस लेख में तो सीधे-सीधे योगी सरकार के अवैध बूचड़खाने बंद करने के फ़ैसले का समर्थन किया गया है।”

दूसरी प्रगतिशील स्त्री का जवाब था- “हां, पर जो आदमी कहता रहा है कि जीव-हत्या बंद होनी चाहिए, वह बूचड़खाने बंद करने का विरोध कैसे कर सकता है?”

इसपर तीसरी प्रगतिशील स्त्री भड़क गई- “तो फिर अपने विचारों की आड़ में बीजेपी का समर्थन करना तो हो ही गया न?”

दूसरी प्रगतिशील स्त्री ने इसपर कहा- “हां, जब तक यह गोहत्या, बूचड़खाने वगैरह राजनीतिक मुद्दा बने रहते हैं, तब तक अगर लेखक इन मुद्दों पर लिखना या टिप्पणी करना बंद कर दे, तो इस आरोप से बच सकता है। लेकिन इसमें ख़तरा यह है कि जीवन निकल जाएगा और लेखक कभी अपनी बात कह ही नहीं पाएगा। क्योंकि ये मुद्दे तो सौ-डेढ़ सौ साल से रहे हैं, आगे भी रहेंगे अभी।”

पहली प्रगतिशील स्त्री संतुष्ट नहीं हुई। बोली- “मैं ये नहीं कह रही कि लेखक न लिखे। लिखे, लेकिन बीजेपी का विरोध करे। उसके कदम के पीछे राजनीति है?”

दूसरी प्रगतिशील स्त्री ने कहा- “हां, अगर लेखक ख़ुद अपने स्टैंड का विरोध करने का फ़ैसला कर ले, तो वह बूचड़खाने बंद कराने के लिए भी बीजेपी का विरोध कर सकता है।”

लंच टाइम था। तब तक बाहर के किसी रेस्टूरेंट से खाने में “मटन” आ गया। पहली और तीसरी प्रगतिशील स्त्री इस फिजूल की चर्चा छोड़कर खाने पर टूट पड़ी। दूसरी प्रगतिशील स्त्री यद्यपि मांसाहार से परहेज़ नहीं करती थीं, लेकिन इस चर्चा के बाद उनका ज़ायका बिगड़ गया। उन्होंने वह खाना नहीं खाया।

मेरे मित्र इस पूरी चर्चा के दौरान अनभिज्ञ बने रहे और चुपचाप सुनते रहे। बाद में उन्होंने दूसरी प्रगतिशील महिला से पूछा- “आपने खाना क्यों नहीं खाया।” इसपर उन्होंने कहा- “कोई भाजपाई हो या कांग्रेसी हो, अगर सही बात बोलता है, तो दिल पर ज़रूर लगती है। मैंने मांसाहार छोड़ देने का फ़ैसला किया है।”

अगर उस चर्चा को एक चुनाव मानें, तो यद्यपि मेरी और मेरे विचारों की दो-एक से हार हो गई थी, लेकिन यह तय हो गया था कि अगर उन दूसरी प्रगतिशील स्त्री की वजह से उनके बाकी जीवन के चालीस-पचास साल में हज़ार दो हज़ार पशु-पक्षियों की भी हत्या होनी थी, तो अब वे हत्याएं नहीं होंगी। यानी इतने पशु-पक्षियों की जान बच गई। यह मेरी और मेरे तथाकथित भाजपाई विचारों की जीत है।

 

वरिष्ठ कवि, चिंतक और पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से- https://www.facebook.com/talk2abhiranjan/posts/1354362477943466 

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