वे भी तालिबान, जो लड़कियों को सिर्फ़ कपड़े उतारने की आज़ादी देते हैं, पहनने की नहीं देते!

-अभिरंजन कुमार, वरिष्ठ कवि, चिंतक और पत्रकार

लड़कियां क्या पहनें और क्या न पहनें- हमारे देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के लिए यह हमेशा से एक गरमागरम और लार-टपकाऊ विषय रहा है। लेकिन हमारा स्टैंड बिल्कुल साफ़ है कि जो लड़कियों पर कपड़ों की पाबंदी लगाना चाहते हैं, वे भी एक्स्ट्रीमिस्ट हैं और जो लोग यह कहते हैं कि चाहे कुछ भी पहनो, किसी को क्यों परेशानी होनी चाहिए, वे भी एक्स्ट्रीमिस्ट हैं। कपड़ों की आज़ादी आपको है, होनी चाहिए, लेकिन नग्नता की आज़ादी किसी को नहीं दी जा सकती।

आप चाहे साड़ी पहनें, जींस पहनें, कुर्ती-सलवार पहनें- कुछ भी पहनें, इतना ध्यान ज़रूर रखें कि कपड़े पहनने का प्राथमिक उद्देश्य तन को ढंकना ही होता है। न बिल्कुल ऐसा निज़ाम होना चाहिए कि हर औरत बुरके में दिखे, न बिल्कुल ऐसा दौर होना चाहिए कि हर स्त्री नग्न या अर्द्धनग्न सड़कों पर घूमे। एक बीच का रास्ता ही श्रेयस्कर है।

भारत में जब भी कपड़ों पर चर्चा होती है, कई लोग हमें अजंता और एलोरा के दर्शन कराने लगते हैं। धर्म से, संस्कृति से, इतिहास से ढूंढ़-ढूंढ़कर हवाला देने लगते हैं। उस लंबी बहस का कोई मतलब नहीं होता, क्योंकि सबसे बड़ा तथ्य यही है कि एक दिन पूरी दुनिया में इंसान नंगे रहे होंगे और आज पूरी दुनिया में लोग कपड़े पहन रहे हैं।

हम पुराने राजा-महाराजाओं वाली व्यवस्था तो अपने मुल्क मे नहीं चाहते, लेकिन अपनी अप्सराओं को उन्होंने जैसे कपड़े पहनवाए, अपने कलाकारों से जैसी मूर्तियां बनवाईं, उनका हवाला देकर आज स्त्रियों को नग्न या अर्द्धनग्न देखने की तमन्ना ज़रूर रखने लगे हैं।

पुरुषों की मानसिकता को समझने की ज़रूरत है। ज़्यादातर हिन्दुस्तानी मर्द अपनी बहन-बेटियों को ढंका हुआ और दूसरों की बहन-बेटियों को नग्न देखना चाहते हैं। इसीलिए वो आपको इतने प्रगतिशील दिखाई देते हैं। बहुत सारी स्त्रियां पुरुषों की इस चालाक मानसिकता को नहीं समझ पातीं और बहुत सारी इसे अच्छी तरह समझते हुए इसका फ़ायदा उठाना चाहती हैं।

नग्नता के पक्ष में बहुत सारी आवाज़ें आपको इसीलिए सुनने को मिलती हैं। दोहरा रवैया तो हर जगह है। सरकारी स्कूल-कॉलेजों में ड्रेस-कोड की मुख़ालफ़त की ख़बरें अक्सर आती रहती हैं, लेकिन प्राइवेट स्कूल-कॉलेजो में ड्रेस-कोड का विरोध आपने कभी सुना है? वहां वही ड्रेस-कोड डिसीप्लीन का हिस्सा बन जाता है।

इसी तरह आज स्त्रियों के कपड़ों की आज़ादी पर फिल्म इंडस्ट्री काफ़ी कुछ बोल रही है, लेकिन क्या फिल्म इंडस्ट्री में लड़कियों को अपनी मर्ज़ी के कपड़े पहनने की आज़ादी है? बिल्कुल नहीं। फिल्म इंडस्ट्री में कोई अभिनेत्री अगर कपड़े नहीं उतारना चाहेगी, तो हमारी इंडस्ट्री उसे यह आज़ादी नहीं देगी, क्योंकि वहां पर आज़ादी तो सिर्फ़ कपड़े उतारने की है।

ये किस तरह की आज़ादी के पैरोकार हैं, जो आपको कपड़े उतारने की आज़ादी तो देते हैं, लेकिन पहनने की आज़ादी नहीं देते? इसी तरह मीडिया में भी फीमेल एंकर्स के लिए ड्रेस कोड तय है। आम न्यूज़ बुलेटिन पढ़ने वाली लड़कियों के कपड़े अलग हैं। फिल्मों सीरियलों और फैशन से जुड़े बुलेटिन पढ़ने वाली लड़कियो के कपड़े अलग हैं।

सवाल ये है कि मीडिया, फिल्म इंडस्ट्री, कॉरपोरेट हाउसेज, प्राइवेट स्कूल और कॉलेज, एयरलाइंस- ये सारे अगर स्त्रियो को अपनी मर्ज़ी के कपड़े पहनने की आज़ादी नहीं देते- तो आप इनपर सवाल नहीं उठा सकते, लेकिन समाज अगर अपनी बहन-बेटियों के लिए कोई मर्यादा तय करना चाहे, तो आप उन्हें तालिबान कहेंगे।

कौन तालिबान है, कौन तालिबान नहीं है- इसका फ़ैसला आप जब चाहें कर सकते हैं, लेकिन हम आपके लिए यह नहीं कह सकते कि आप सभी धंधेबाज़ हैं, स्त्री-शरीर को बेचना चाहते हैं, किसी को कॉन्डोम बेचना है, किसी को कोई गोली बेचनी है, किसी को साबुन-तेल-शैम्पू बेचना है, किसी को दर्शक जुटाना है, क्योंकि आप सबके हाथों में मोमबत्तियां हैं।

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