समाजवादी दंगल का फ़ायदा उठाना है, तो राजनाथ को सीएम प्रोजेक्ट करे बीजेपी!
मुलायम सिंह इतने बेवकूफ़ होंगे, ऐसा तो नहीं लगता मुझे। वे बहुत चालू है, ऐसा ज़रूर लगता रहा है। इसलिए मुझे लगता है कि उन्होंने अपनी पत्नी साधना गुप्ता, अपने भाई शिवपाल यादव और अपने सिपहसालार अमर सिंह को दिखा दिया है कि तु्म लोगों के बताए रास्ते पर चलकर अखिलेश का तो बाल भी बांका नहीं होगा, लेकिन तुम लोगो की हैसियत शून्य हो जाएगी।
मुमकिन है कि अखिलेश के हाथ में समाजवादी पार्टी की एकछत्र सत्ता सौंपने का कोई दूसरा रास्ता न देखकर मन ही मन मुलायम सिंह ने भी यह स्थिति पैदा हो जाने दी हो। वे दूसरों के लिए नेताजी होंगे, पर अखिलेश के लिए तो पिताजी हैं। इसलिए अखिलेश उन्हें अपनी पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में तो डाल ही देंगे, लेकिन दूसरे जितने भी विघ्न-संतोषी और एंटी-इनकम्बेन्सी फैक्टर होंगे, वे पार्टी से बाहर हो जाएंगे।
मुलायम को यह भी पता है कि समाजवादी पार्टी यह चुनाव तो जीतने से रही, इसलिए इसी के बहाने पार्टी में प्रभुता की तस्वीर उनके जीते-जी साफ़ हो जाए, वरना सुगंधित समाजवाद की आड़ में बदबूदार परिवारवाद का जो रायता उन्होंने यूपी के चप्पे-चप्पे पर फैला दिया है, उससे उनके न रहने के बाद न सिर्फ़ समाजवादी पार्टी, बल्कि उनके परिवार का एक-एक सदस्य सियासी तौर पर समाप्त हो जाएगा। इसलिए विरासत का हस्तांतरण बेहद ज़रूरी था और यह हस्तांतरण प्यार से नहीं, दंगल से ही संभव था।
मुलायम ने नाक को सीधे हाथ से पकड़ने के बजाय पीछे ले जाकर उल्टे हाथ से पकड़ने का काम किया है। अगर वे सीधे-सीधे अखिलेश का पक्ष लेते, तो उन्हें धृतराष्ट्र कहा जाता, पुत्रमोह में अंधा कहा जाता, बेटे की भी छवि ख़राब हो जाती, ऐसा संदेश जाता कि उत्तर प्रदेश में जंगलराज के लिए अखिलेश ही ज़िम्मेदार हैं। इसीलिए उन्होंने बेटे का पक्ष न लेकर भाई का पक्ष लिया। उन्हें पता था कि भाई का पक्ष लेने से बेटा मज़बूत होगा, एंटी-इनकम्बेन्सी भाई के मत्थे चली जाएगी। इतना ही नहीं, पार्टी में जो भी नई परिस्थिति बनेगी, उसमें अखिलेश के रास्ते के सारे कांटे बाहर हो जाएंगे और वह सर्वशक्तिमान नेता बनकर उभरेगा।
मुलायम का व्यक्तिगत राजनीतिक करियर अब समाप्त है। वे देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति बनने से तो रहे। लेकिन उनके बेटे के सामने पूरी ज़िंदगी अभी पड़ी है। इसलिए वे बेटे की राह को निष्कंटक बनाना चाहते होंगे, ऐसा मानने में कोई अनहोनी नहीं है। इसलिए मुमकिन है कि मुलायम सिंह ने एक बार फिर से उत्तर प्रदेश की जनता को बेवकूफ बनाने का खेल खेला हो। अखिलेश अभी युवा हैं। चालीस साल के आसपास के ही हैं। उनका राजनीतिक करियर कम से कम तीस साल बचा हुआ है। अगर उनकी छवि साफ-सुथरी और विकासवादी नेता की बनी, तो उनका भविष्य उज्ज्वल रहेगा और मुलायम-वंश चलता रहेगा।
बहरहाल, अगर मुलायम ने स्क्रिप्टेड दांव भी चला हो, तो इतना ज़रूर है कि इस बहाने यूपी में कम से कम मुलायम-शिवपाल छाप राजनीति का तिलिस्म टूटेगा और अखिलेश पर यह दबाव रहेगा कि अगर साफ-सुथरी छवि और विकासवादी सोच के चलते ही उनका अस्तित्व बच पाया है, तो वे इसका लिहाज करें। कितना कर पाएंगे, यह तो बाद में ही पता चलेगा, क्योंकि डीपी यादव, राजा भैया या मुख्तार अंसारी भले चंद व्यक्तियों के नाम हों, पर समाजवादी पार्टी में उन जैसे कैरेक्टर बहुत सारे हैं। उनमें भी, जो अखिलेश के साथ हैं और उनमें भी, जो अखिलेश के साथ नहीं हैं।
ऐसे में यक्ष प्रश्न यही है कि उत्तर प्रदेश की जनता इस सियासी ड्रामे या असली दंगल… जो भी हो… उसे किस रूप में लेती है। क्या समाजवादी पार्टी पर मुलायम-शिवपाल का दबदबा कम हो जाए या खत्म हो जाए, तो अखिलेश पर भरोसा करके एक बार फिर से वह उसके साथ खड़ी हो जाएगी? या वह इस बात को समझ पाएगी कि राजनीति में कई बार व्यक्तियों के आने-जाने से फ़र्क़ नहीं पड़ता, प्रवृत्तियों से पड़ता है और समाजवादी पार्टी की मूल-प्रवृत्ति तो वही है, जो मुलायम-शिवपाल की है?
दुर्भाग्य यह भी है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति बिहार की ही तरह जाति और संप्रदाय के समीकरण में बुरी तरह से उलझी हुई है। न जनता इस कीचड़ से निकलना चाहती है, न नेता उन्हें निकलने देना चाहते हैं। अब जब यह युद्ध थमेगा और चुनाव का बिगुल बजेगा तो फिर से सब इसी जुगाड़ में भिड़ जाएंगे कि मुसलमान किसके साथ जाएंगे, दलित किसके साथ जाएंगे, यादव किसके साथ जाएंगे, ब्राह्मण और ठाकुर किसके साथ जाएंगे।
समाजवादी पार्टी अगर दो फाड़ भी हो जाए, तो भी उसका कोई भी गुट मुस्लिम-यादव राजनीति से बाहर नहीं निकल पाएगा। इसी तरह, बहुजन समाज पार्टी भी दलित नाम की लूट-खसोट से अलग रास्ते पर नहीं जा सकती। इस बार चुनाव जीतने के लिए उनके पास बस इतनी सी रणनीति है कि किसी तरह दलितों के साथ मुसलमानों का गठबंधन बन जाए। कांग्रेस की तो बात करना भी बेमानी है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में वह कोई राजनीतिक ताकत है ही नहीं। हां, अगर वह सपा या बसपा दोनों में से किसी के भी साथ मिल जाए, तो खेल ज़रूर बदल सकता है।
ऐसे में भारतीय जनता पार्टी को जाति और धर्म की राजनीति से अलग कोई बड़ी लकीर खींचनी चाहिए। उसपर सांप्रदायिक राजनीति करने का जो आरोप पहले से लगता रहा है, वह तो उसके लाख धोने से भी नहीं धुलने वाला, लेकिन कम से कम अगर वह जातिवादी राजनीति के समानांतर एक बड़ी लाइन खींच सके, तो भी बहुत बड़ी बात हो जाएगी।
मेरी राय में भारतीय जनता पार्टी को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए था। अब तक नहीं किया, तो अब किसी नए चेहरे को सामने करने का विकल्प दिल्ली की तरह ख़तरनाक हो सकता है। लेकिन राजनाथ सिंह जैसे स्थापित चेहरे को अगर आज भी वह मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर दे, तो उसे निश्चित रूप से इसका फायदा मिलेगा। ऐसी स्थिति में, उसका उम्मीदवार अखिलेश यादव और मायावती- दोनों पर निश्चित रूप से भारी पड़ेगा। इतना ही नहीं, समाजवादी पार्टी के बिखराव और बहुजन समाज पार्टी की हताशा का भी फायदा उसे ज़रूर मिलेगा।
नोटबंदी करके मोदी सरकार ने पहले ही जातीय राजनीति को अमीर और ग़रीब की तरफ़ मोड़ने का प्रयास किया है। इसी तरह तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओँ के हित में स्टैंड लेकर उसने सांप्रदायिक राजनीति को भी अपने तरीके से जवाब देने की कोशिश की है। ज़ाहिर तौर पर, अगर इन प्रयासों में निरंतरता बनी रहे और बीजेपी सिर्फ़ सभी जातियों और धर्मों के ग़रीबों को इतना भरोसा दिला सके कि उनकी भलाई के लिए वह देश का कड़ा से कड़ा ऑपरेशन करने से भी नहीं हिचकेगी, तो यूपी में फिर से उसकी सत्ता कायम होने के लिए यह एक बेहद अनुकूल समय हो सकता है।
वरिष्ठ कवि और पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से।